________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 111 से 113 ".."पावाओ विरतेऽभिनिवडे-इस पंक्ति का आशय यह है कि “साधक पुरुष ! तुम भव्य हो, रागसे ऊपर उठकर, स्व-पर के प्रति निष्पक्ष, सद्-असद् विवेकी या पापों से दूर रहकर ठण्डे दिल-दिमाग से उन पाप कर्मों के परिणामों पर विचार करो अथवा अपने जीवन आदि पापजनक जो भी स्थान या कार्य हों, उनसे विरत होकर तथा कषाय और राग-द्वेष आदि से या इन्हें उत्पन्न करने वाले कार्यों से सर्वथा निवृत्त-शान्त हो जाओ। शान्ति से आत्म-स्वभाव में या आत्म-भाव में रमण करो, यह आशय भी यहाँ भित है। 'वेतालियमग्ग"चरेज्जासि-इस गाथा का यह आशय ध्वनित होता है कि आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को उपदेश देने के साथ समस्त मोक्ष-पथिक गृहत्यागी साधुओं को उपदेश दिया है कि हे साधको ! अब तुम कर्मबन्धन का मार्ग छोड़कर पूर्वोक्त वीरतापूर्वक विदारण समर्थ (वैदारक) मार्ग पर चल पड़े हो। अब तुम्हें संयम पालन के तीन साधनों --मन-वचन-काया पर नियन्त्रण रखना है। मन को सावध (पापयुक्त) विचारों से रोककर निर्वद्य (मोक्ष एवं संयम) विचारों में आत्मभाव में लगाना है, वचन को पापोत्पादक शब्दों को व्यक्त करने से रोककर धर्म (संवर निर्जरा) युक्त वचनों को व्यक्त करने में लगाना है या मौन रहना है और काया को सावध कार्यों से रोककर निर्वद्य सम्यग्दर्शनादि धर्माचरण में लगाना है। साथ ही धन-सम्पत्ति, परिवार, स्वजन या गार्हस्थ्य-जीवन के प्रति जो पहले लगाव रहा है, उसे अब सर्वथा छोड़ देना है, बिलकुल भूल जाना है, और मन तथा इन्द्रियों के विजेता जागरूक संयमी बनकर इस वैदारिक महापथ पर विचरण करना है। प्रथम उद्देशक समाप्त बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक मद-त्याग-उपदेश : 111 तयसं व जहाति से रयं, इति संखाय मुणो ण मज्जती। गोतण्णतरेण माहणे, अहसेयकरी अन्नेसि इंखिणी // 1 // 112 जो परिभवती परं जणं, संसारे परिपत्ततो महं। अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणो ण मज्जती // 2 // 113 जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसए सिया। जे मोणपर्व उवहिए, णो लज्जे समयं सया चरे // 3 // 30 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 60 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org