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________________ 132 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-चैतालीय 111. जैसे सर्प अपनी त्वचा-केंचुली को छोड़ देता है, यह जानकर (वैसे) माहन (अहिंसा प्रधान) मुनि गोत्र आदि का मद नहीं करता (छोड़ देता है) दूसरों की निन्दा अश्रेयस्कारिणी-अकल्याणकारिणी है। (मुनि उसका भी त्याग करता है।) 112. जो साधक दूसरे व्यक्ति का तिरस्कार (प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से अवज्ञा) करता है, वह चिरकाल तक या अत्यन्त रूप से चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करता है / अथवा (या क्योंकि) पर निन्दा पापिका-पापों की जननी-दोषोत्पादिका ही है। यह जानकर मुनिवर जाति आदि का मद नहीं करते। 113. चाहे कोई अ-नायक (स्वयं नायक-प्रभु चक्रवर्ती आदि) हो (रहा हो); अथवा जो दासों का भी दास हो (रहा हो); (किन्तु अब यदि वह) मौनपद-संयम मार्ग में उपस्थित (दीक्षित) हैं तो उसे (मदवश या हीनतावश) लज्जा नहीं करनी चाहिए / अपितु सदैव समभाव का आचरण करना चाहिए। विवेचन-मद का विविध पहलुओं से त्याग क्यों और कैसे ?-प्रस्तुत त्रिसूत्री में मुख्य रूप से मद त्याग का उपदेश विविध पहलुओं से दिया गया है / मद त्याग के विविध पहलू ये हैं--(१) साधु, कर्म बन्धन के कारण मूल अष्टविध मद का त्याग करे, (2) साधु मदान्ध होकर अकल्याणकारी परनिन्दा न करे (3) जाति आदि मद के वशीभूत होकर पर का तिरस्कार न करे, (4) मद (4) मद के कारण पूर्व दीक्षित दास और वर्तमान में मुनि को वन्दनादि करने में लज्जित न हो, न ही हीन भावनावश साधु अपने से बाद में दीक्षित भूतपूर्व स्वामी से वन्दना लेने में लज्जित हो।" इसमें प्रस्तुत गाथा में मद त्याग क्यों करना चाहिए? इसका निर्देश है और शेष दो गाथाओं में यह बताया गया है कि मद कैसे-कैसे उत्पन्न होता है तथा साधक मद के कारण किन-किन दोषों को अपने जीवन में प्रविष्ट कर लेता है ? उन्हें आते ही कैसे और क्यों खदेड़े ? इति संखाय मुणी न मज्जती-वह महत्त्वपूर्ण मद त्याग सूत्र है। इसका आशय यह है कि मद चाहे किसी भी प्रकार का हो, वह पाप-कर्मबन्ध का कारण है / सर्प जैसे अपनी त्वचा (केंचुली) को सर्वथा छोड़ देता है, इसी तरह साधु को कम आस्रव को या कर्मबन्ध को सर्वथा त्याज्य समझकर कर्मजनक जाति, गोत्र (कुल), बल, रूप, धन-वैभव, आदि मद का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। 'अहऽसेयकरी अन्नेसि इंखिणी' - इस पंक्ति का आशय यह है कि साधक में दीक्षा लेने के बाद जरासा भी जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, शास्त्रज्ञान, ऐश्वर्य (पद या अधिकार) का मद होता है, तो उसके कारण वह दूसरों का उत्कर्ष, किसी भी बात में उन्नति सह नहीं सकता, दूसरों की (मनुष्यों, साधकों या सम्प्रदायों की) उन्नति, यशकीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा वृद्धि देखकर वह मन-ही-मन कुढ़ता है, जलता है, ईर्ष्या करता है, दोष-दर्शन करता रहता है। फलतः अपने मद को पोषण देने के लिए वह दूसरों की निन्दा, चुगली, बदनामी मिथ्यादोषारोपण, अप्रसिद्धि या अपकीर्ति करता रहता है। इस प्रकार अपने मद की वह वृद्धि करके भारी पाप कर्मवन्धन कर लेता है।' शास्त्रकार ने यहाँ संकेत कर दिया है कि साधु अपने आत्म-कल्याण के लिए कर्मबन्धजनक समस्त बातों का त्याग कर चुका है, फिर आत्मा का अकल्याण करने वाली पापकर्मवर्द्धक परनिन्दा को वह क्यों 1 सूत्रकृतांग मूलपाठ एवं शीलांकवृत्ति भाषानुवाद, पृ० 226 से 230 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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