________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 708 ] [ 71 (4) प्रत्येक प्रवृत्ति में समिति से युक्त, तथा यतनाशील / (5) मन, बचन, काया और इन्द्रियों की गुप्ति से युक्त, नवगुप्ति सहित ब्रह्मचर्यनिष्ठ / इस दृष्टि से प्रस्तुत मूलपाठ में वर्णित सुविहित साधु में मिथ्यात्व, अविरति न होने पर भी कदाचित् प्रमाद एवं कषाय की सूक्ष्ममात्रा रहती है, इसलिए सिद्धान्ततः ऐपिथिक क्रिया न लग कर साम्प्रदायिक क्रिया लगती है। जिस साधु में प्रस्तुत सूत्रोक्त अर्हताएँ नहीं हैं, वह वीतराग अवस्था को निकट भविष्य में प्राप्त नहीं कर सकता और वीतराग अवस्था प्राप्त किये बिना कोई भी आत्मा ऐर्यापथिक क्रिया को प्राप्त नहीं कर सकता।' अधर्मपक्ष नामक प्रथम स्थान के विकल्प 708 - अदुत्तरं च णं पुरिसविजयविभंगमाइक्खिस्सामि / इह खलु नाणापण्णाणं नाणाछंदाणं नाणासीलाणं नाणादिट्ठीणं नाणारईणं नाणारंभाणं नाणाझवसाणसंजुत्ताणं नाणाविहं पावसुयज्झयणं एवं भवति, तंजहा-भोम्म उप्पायं सुविणं अंतलिक्खं अंगं सरलक्खणं वंजणं इथिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं मिढलक्षणं कुक्कडलक्खणं तित्तिरलक्खणं वगलक्खणं लावगलक्खणं चक्कलक्खणं छतलक्खणं चम्मलक्वणं दंडलक्खणं असिलक्षणं मणिलक्खणं कागिणिलक्खणं सुभगाकरं दुभगाकरं गम्भकरं मोहणकरं माहवणि पागसासणि दव्यहोमं खत्तियविज्जं चंदचरियं सूरचरियं सुक्कचरियं बहस्सइचरियं उक्कापायं दिसीदाहं मियचक्कं वायसपरिमंडलं पंसुद्धि केसवुट्ठि मंसवुद्धि रुहिरवुट्ठि वेतालि अद्धवेतालि प्रोसोणि तालुगधाडणि सोवागि सारि दामिलि कालिगि गोरि गंधारि प्रोवणि उप्पणि जणि थंभणि लेसणि प्रामयकणि विसल्लकरणि पक्कणि अंतद्वाणि प्रायणि एवमादियानो बिज्जानो अन्नस्स हे पउंजंति, पाणस्स हेउं पउंति वस्थस्स हे पउजंति, लेणस्स हे पउजंति, सयणस्स हेउं पउंति, अन्नेसि वा विरूव-रूवाणं कामभोगाण हेउं पउंजंति, तेरिच्छं ते विज्जं सेवंति, प्रणारिया विप्पडिवना ते कालमासे कालं किच्चा अण्णतराई प्रासुरियाई किब्बिसियाई ठाणाई उववत्तारो भवंति, ततो वि विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयताए तभअंधयाए पच्चायति / ७०८-इसके पश्चात् पुरुषविजय (जिस-जिस विद्या से कतिपय अल्पसत्त्व पुरुषगण अनर्थानु१. (क) ईरणमौर्या तस्यास्तया वा पन्था ईर्यापथस्तत्रभवमीर्यापथिकम् / अर्थात्-गमनागमनादि करना ईर्या है, उसका या उसके सहारे से पथ का उपयोग करना ईर्यापथ है। ईर्यापथ से होने वाली क्रिया ईपिथिक है। यह इसका शब्दव्युत्पत्तिनिमित्त है। प्रवृत्तिनिमित्त इस प्रकार है-सर्वत्रोपयुक्तस्याकषायस्य समीक्षित मनोवाक्कायक्रियस्य या क्रिया, तया यत्कर्म तदीर्यापथिकेत्युच्यते।' अर्थात--जो साधक सर्वत्रोपयोगयुक्त हो, अकषाय हो, मन-वचन-काया की क्रिया भी देखभाल कर करता हो. उसकी (कायिक) क्रिया ईर्यापथकिया है, उससे जो कर्म बंधता है, उसे ईर्यापथिका कहते हैं। सूत्रकृतांग शी० वृत्ति, पत्रांक 316 (ख) देखिये 'केवली णं भंते ! अस्सिं समयंसि जेसु आगासपएसेसु' इत्यादि वर्णन -सूत्रकृ. शी. वृत्ति, पत्रांक 316 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org