SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 767
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णालंदइज्जं : सत्तमं अज्झयणं नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन नालन्दानिवासी लेप श्रमणोपासक और उसकी विशेषताएँ ८४२--तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था, रिद्धिस्थिमितसमिद्धे जाव' पडिरूवे / तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं नालंदा नाम बाहिरिया होत्था अणेगभवणसयसन्निविट्ठा जावपडिरूवा / ८४२-~-धर्मोपदेष्टा तीर्थकर महावीर के उस काल में तथा उस समय में (उस काल के विभाग विशेष में) राजगृह नाम का नगर था / वह ऋद्ध (धनसम्पत्ति से परिपूर्ण), स्तिमित (स्थिरशासन युक्त अथवा स्वचक्र-परचक्र के भय से रहित) तथा समृद्ध (धान्य, गृह, उद्यान तथा अन्य सुखसामग्री से पूर्ण) था, यावत् बहुत ही सुन्दर था। (इसका समस्त वर्णन औपपातिक सूत्र के नगरीवर्णन के अनुसार जान लेना चाहिए।) उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग (ईशान कोण) में नालन्दा नाम की बाहिरिका-उपनगरी (अथवा पाडा या लघु ग्रामटिका) थी / वह अनेक-सैकड़ों भवनों से सुशोभित थी, यावत् (वह प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूव एवं) प्रतिरूप (अतिसुन्दर) थी। ८४३–तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेए नाम गाहावती होत्था, अड्ढे दित्ते वित्ते विस्थिण्णविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधण-बहुजातरूवरजते आप्रोगपयोगसंपउत्ते विच्छड्डितपउरभत्तपाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूते बहुजणस्स प्रपरिभूते यावि होत्था / से णं लेए गाहावती समणोवासए यावि होत्या अभिगतजीवा-ऽजीवे जाव' विहरति / ८४३-उस नालन्दा नामक बाहिरिका (बाह्यप्रदेश) में लेप नामक एक गाथापति (गृहपतिगृहस्थ) रहता था, वह बड़ा ही धनाढ्य, दीप्त (तेजस्वी) और प्रसिद्ध था। वह विस्तीर्ण (विशाल) 1. यहाँ 'जाव' शब्द से 'पडिरूवे' तक 'राजगृहनगर' का शेष वर्णन औपपातिक सूत्र में वर्णित चम्पानगरी के वर्णन की तरह समझ लेना चाहिए। 2. यहाँ 'जाव' शब्द से 'पडिरूबा' तक का वर्णन यों समझना चाहिए 'पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा' 3. लेप श्रमणोपासक का वर्णन प्रस्तुत प्रति में 'अभिगतजीवाजीवे से आगे 'जाव विहरति' करके छोड़ दिया है, किन्तु वत्तिकार शीलांकाचार्य के समक्ष इसी शास्त्र के क्रियास्थान अध्ययन के 715 वें सत्र में वणित . सारा पाठ था, इसलिए प्रस्तुत मूलाथ में तदनुसार भावानुवाद किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy