________________ गाचा 461 से 463 367 जे गेहं निव्यहे तीन अर्थ- [1] द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस शुद्ध अन्न-जल से, अथवा दुर्भिक्ष, रोग, आतंक आदि कारणों से किंचित् अशुद्ध अन्न-जल से इस लोक में इस संयमयात्रादि का निर्वाह हो, अथवा [2] वैसा ही अन्न-जल संयम का निर्वाह कर के लिए दूसरों को दे। [3] जिस कार्य के करने से अर्थात् असंयमो गृहस्थ आदि को आहार देने से साधु का संयम दूषित हो, वैसा कार्य साधु न करे। साधुधर्म के भाषात्रिबेकसूत्र-- 461. भासमाणो न भासेज्जा, णेय वंफेज्ज मम्मयं / मातिहाणं विवज्जेज्जा, अणुवियि वियागरे // 25 // 462. तथिमा ततिया भासा, जं वदित्ताऽणुतप्पती। जं छन्न तं न वत्तव्वं, एसा आणा नियंठिया / / 26 / / 463 होलावायं सहीवाय, गोतावायं च नो बदे। तुमं तुम ति अमणुण्णं, सव्वसो तं ण वत्तए / 27 / / 461. किसी बोलते हुए के बीच में न बोले / (अथवा भाषा समिति से युक्त) साधु (धमोपदेश या धर्म सम्बन्धी) भाषण करता हुआ भी भाषण न करने वाले (मौनी) के समान है) साधु मर्मस्पर्शी भाषा न बोले; वह मातृस्थान-माया (कपट) प्रधान वचन का त्याग करे / (जो कुछ भी बोने, पहले उस सम्बन्ध में) सोच-विचार कर बोले। 462. चार प्रकार की भाषाओं में जो तृतीय भाषा (सत्या-मषा) है, उसे साधु न बोले, तथा जिसे बोलने के बाद पश्चात्ताप करना पड़े, ऐसी भाषा भी न बोले। जिस बात को सब लोग छिपाते (गुप्त रखते) हैं अथवा जो क्षण (हिंसा) प्रधान भाषा हो वह भी नहीं बोलनी चाहिए। यह निर्ग्रन्थ (भगवान महावीर) की आज्ञा है। 463. साधु निष्ठुर या नीच सम्बोधन से किसी को पुकारकर (होलावाद) न करे। सखी मित्र आदि कह कर सम्बोधित करके (सखिवाद) न करे तथा गोत्र का नाम लेकर (चाटुकारिता की दृष्टि से) किसी को पुकार कर (गोत्रवाद) न बोले। रे, तू, इत्यादि तुच्छ शब्दों से किसी को सम्बोधित न करे, तथा जो अप्रिय-अमनोज्ञ वचन हो, उन्हें साधु सर्वथा (बिलकुल) न कहे अथवा वैसा दुर्व्यहार (वर्तन) साधु सर्वथा न करे। विवेचन-भाषा विवेक सूत्र-~-प्रस्तुत तीन सूत्र गाथाओं (सूत्र० गा० 461 से 463) में यह विवेक बताया गया है कि साधु को कैसी भाषा बोलनी चाहिए, कैसी नहीं ? मासमाणो न भासेज्जा-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ प्रस्तुत किये हैं- (1) दीक्षा ज्येष्ठ (रत्नाधिक) साधु किसी से बात कर रहा हो, उस समय अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने या बड़े की लघुता प्रकट करने की दृष्टि से बीच में न बोले, क्योंकि ऐसा 8 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 176 से 181 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 80, 81, 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org