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________________ 368 सूत्रकृतांग-गवम अध्ययम---धर्म करने से बड़ों की आशातना और अपने अभिमान की अभिव्यक्ति होती है। अथवा (2) जो साधु वचनविभाग को जानने में निपुण है, जो वाणी के बहुत से प्रकारों को जानता है, वह दिनभर बोलता हुआ न बोलने वाले (वचनगुप्ति युक्त-मौनी) के समान है, क्योंकि वह भाषा-समिति का ध्यान रखकर बोलता है, वह धर्मोपदेश, धर्म-पथ प्रेरणा, धर्म में स्थिरता के लिए मार्ग-दर्शन देते समय पूर्ण सतर्क होकर वाणीप्रयोग करता है। व वंफेज मम्मयं-- दो अर्थ - (1) बोला हुआ वचन चाहे सत्य हो या असत्य, किन्तु यदि वह किसी के मन में चुभने या पीड़ा पहुंचाने वाला हो तो उसे न बोले, अथवा (2) 'यह मेरा है', ऐसा सोचकर किसी के प्रति पक्षपात युक्त (मामक) वचन न कहे। भातिट्ठाणं विवज्जेज्जा--दो अर्थ-(१) कपट प्रधान (संदिग्ध, छलयुक्त, द्वयर्थक) वचन का त्याग करे, अथवा (2) दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए साधु मायाचार या दम्भ न करे। निग्रन्थ-आज्ञा से सम्मत एवं असम्मत भाषा= दशवैकालिक, आचारांग आदि शास्त्रों में चार प्रकार की भाषा बताई है-(१) सत्या, (2) असत्या, (3) सत्या-मृषा और (4) असत्या-मषा। इन चारों में से असत्या भाषा तो वर्जनीय है ही, तीसरी भाषा-सत्यामृषा (कुछ झूठी, कुछ सच्ची भाषा) भी वजित है। जैसे किसी साधक ने अनुमान से ही निश्चित रूप से कह दिया- 'इस गाँव में बीस बच्चों का जन्म या मरण हुआ है।' ऐसा कहने में संख्या में न्यूनाधिक होने से यह वचन सत्य और मिथ्या दोनों से मिश्रित है। असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा भी भाषासमिति युक्त बोलने का विधान है। इन तीनों भाषाओं के अतिरिक्त प्रथम भाषा सर्वथा सत्य होते हुए भी निम्नोक्त कारणों से साधु के लिए निषिद्ध बताई गई है (11) जिस वचन को कहने से किसी को दुःख, पीड़ा, उद्वेग, भय, चिन्ता, आघात, मर्मान्तक वेदना, अपमानदंश, मानसिक क्लेश पैदा हो। (2) जो कर्कश, कठोर, वध-प्रेरक, छेदन-भेदन कारक, अमनोज्ञ एवं ताड़न-तर्जनकारक हो, अर्थात् हिंसा-प्रधान हो। (3) जो भाषा मोह-ममत्वजनक हो, जिस भाषा में स्वत्व मोह के कारण पक्षपात हो / (4) जो भाषा वाहर से सत्य प्रतीत हो, परन्तु भीतर से दम्भ या छल-कपट से भरी हो। (5) जो भाषा हिंसादि किसी पाप में श्रोता को प्रेरित करती (सावद्य) हो, जैसे—“इसे मारोपोटो," "चोरी करो", आदि वचन / 6. 'वयणविहत्तीकुसलोवगयं बहु विहं वियाण तो / दिवस पि भासमाणो साह वयगुत्तय पत्तो / ' 10. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 182-183 (ख) तुलना करें-(अ) दशवकालिक अ०७ गा०६ से 20 तक (आ) आचारांग विवेचन द्वि० श्रु० सू० 524 से 528 तक पृ० 217 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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