________________ गाथा 464 से 472 366 (6) जो भाषा सत्य होते हुए भी किसी को अपमानित, तिरस्कृत या बदनाम करने अथवा नीचा दिखाने, उपहास करने या अपना अहंकार प्रदर्शित करने की दृष्टि से बोली जाए। या जो ऐ नीच, रे दुष्ट, तू चोर है, काना है, पापी है ! आदि तुच्छ वचन रूप हो। (7) जिस भाषा की तह में चाटुकारिता, दीनता या स्व-हीनता भरी हो। (8) जो भाषा सत्य होते हुए भी मन में सन्देहास्पद हो, द्वयर्थक हो, निश्चयकारी हो, या जो भाषा सहसा अविचारपूर्वक बोली गई हो। (E) जिस भाषा के बोलने से बाद में पश्चात्ताप हो अथवा बोलने के पश्चात् उसके फलस्वरूप जन्म-जन्मान्तर तक संताप (पीड़ा) पाना पड़े। (10) जिस बात को सभ्य लोग प्रयत्नपूर्वक छिपाते हैं, उसे प्रकट करने वाली, या किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाली हो, इस प्रकार की सब भाषा निषिद्ध है / " लोकोत्तर धर्म के कतिपय आचारसूत्र 464. अकुसोले सया भिक्खू, णो य संसग्गिय भए / सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा पडिबुज्झेज्ज ते विदू / / 28 / / 465. णण्णत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए। गामकुमारियं किड्डु, नातिवेलं हसे मुणी // 26 // 466. अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिव्वए। चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थायिासते // 30 // 467. हम्ममाणो न कुप्पेज्जा, बुच्चमाणो न संजले। सुमणो अहियासेज्जा, ण य कोलाहलं करे / / 31 // 468. लद्धे कामे ण पत्थेज्जा, विवेगे एसमाहिए। आरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया।। 32 / / 11 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 182-183 का तात्पर्य (ख) चार प्रकार की भाषा के लिए देखें-दशवैकालिक अ०७ गा०१ से 4 तक तथा आचारांग द्वि० श्रु० विवेचन सू० 524 पृ० 217 (ग) धुव्वं बुद्धीए पेहित्ता पच्छा बक्कमुदाहरे। अचक्खओ व नेतारं बुद्धिमन्नड ते गिरा / / -- द शवै नियुक्ति गा० 263 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org