________________ सूत्रकतांग-नयम अध्ययन-धर्म 466. सुस्सूसमाणो उवासेज्जा, सुप्पण्णं सुतवस्सियं / __ वीरा जे अत्तपण्णेसी, धितिमंता जितिदिया // 33 // 470. गिहे दीवमपस्संता, पुरिसादाणिया नरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवितं / / 34 // 471. अगिद्ध सद्द-फासेसु, आरंभेसु अणिस्सिते / सव्वेतं समयातीतं, जमेतं लवितं बहुं // 35 // 472. मतिमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिते। गारवाणि य सवाणि, निव्वाणं संधए मुणि // 36 // त्ति बेमि / ॥धम्मो नवमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 464. साधु सदैव अकुशील बनकर रहे, तथा कुशीलजनों या दुराचारियों के साथ संसर्ग न रखे, क्योंकि उसमें (कुशोलों की संगति में) भी सुखरूप (अनुकूल) उपसर्ग रहते हैं, अत: विद्वान् साधक इस तथ्य को भलीभाँति जाने तथा उनसे मावधान (प्रतिवुद्ध-जागृत) रहे। 465. किसी (रोग, अशनित, आतंक आदि) अन्तराय के बिना साधु गृहस्थ के घर में न बैठे। ग्राम-कुमारिका क्रीड़ा (ग्राम के लड़के-लड़कियों का खेल) न खेले, एवं मर्यादा का उल्लंघन करके न हंसे। 466. मनोहर (उदार) शब्दादि विषयों में साधु अनुत्सुक रहे (किसी प्रकार की उत्कण्ठा न रखे। यदि शब्दादि विषय अनायास ही सामने आ जाएँ तो यतनापर्वक आगे बढ़ जाए या संयम में गमन करे, भिक्षाटन आदि साधुचर्या में प्रमाद न करे, तथा परीषहों और उपसर्गों से पीड़ित (स्पृष्ट) होने पर उन्हें (समभावपूर्वक) सहन करे। 467. लाठी, डंडे आदि से मारा-पीटा जाने पर साधु (मारने वाले पर) कुपित न हो, किसी के द्वारा गाली आदि अपशब्द कहे जाने पर क्रोध न करे, जले-कुढ़े नहीं; किन्तु प्रसत्र मन से उन्हें (चुपचाप) सहन करे, किसी प्रकार का कोलाहल न करे। 468. साधु (अनायास) प्राप्त होने वाले काम-भोगों की अभिलाषा न करे, ऐसा करने पर (ही उसे निर्मल) विवेक उत्पन्न हो गया, यों कहा जाता है। (इसके लिए) साधु आचार्यों या ज्ञानियों (बुद्धजनों) के सदा निकट (अन्तेवासी) रहकर आर्यों के धर्म या कर्त्तव्य अथवा मुमुक्षओं द्वारा आचर्य (आचरणीय) ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धर्म सदा सीखे, (उसका अभ्यास करे)। 466. स्व पर-समय (स्व-पर धर्म सिद्धान्तों) के ज्ञाता एवं उत्तम तपस्वी गुरु की सेवा-शुश्रूषा करता हुआ साधु उनकी उपासना करे। जो साधु कर्मों को विदारण करने में समर्थ वीर हैं, आप्त (वीतराग) पुरुष की केवल ज्ञानरूप प्रज्ञा या आत्मप्रज्ञा का अन्वेषण करते हैं, धृतिमान् हैं और जितेन्द्रिय हैं, वे ही ऐसा आचरण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org