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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 17 से 18 चार धातु हैं-(१) पृथ्वी धातु, (2) जल धातु, (3) तेज धातु और (4) वायु धातु / ये चारों पदार्थ जगत् को धारण-पोषण करते हैं, इसलिए धातु कहलाते हैं / ये चारों धातु जब एकाकार होकर भूतसंज्ञक रूपस्कन्ध बन जाते हैं, शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं, तब इनकी जीवसंज्ञा (आत्मा संज्ञा) होती है। जैसा कि वे कहते हैं-"यह शरीर चार धातुओं से बना है, इन चार धातुओं से भिन्न आत्मा नहीं है।''यह भूतसंज्ञक रूपस्कन्धमय होने के कारण पंचस्कन्धों की तरह क्षणिक है / अतः चातुर्धातुकवाद भी क्षणिकवाद का ही एक रूप है। 'जाणमा' शब्द का अर्थ है-वे बौद्ध, जो अपने आपको बड़े जानकार या ज्ञानी कहते है। कहीं-कहीं 'जाणगा' के बदले पाठान्तर है-'यावरे' (य+अवरे) उसका अर्थ होता है- 'और दूसरे' / 62 ये सभी अफलवादी-वृत्तिकार का कहना है कि ये सभी बौद्धमतवादी अथवा सांख्य, बौद्ध आदि सभी पूर्वोक्त मतवादी अफलवादी हैं। बौद्धों के क्षणिकवाद के अनुसार पदार्थ मात्र, आत्मा या दान आदि सभी क्रियाएँ क्षणिक हैं। इसलिए क्रिया करने के क्षण में ही कर्ता-आत्मा का समूल विनाश हो जाता है। अतः आत्मा का क्रिया-फल के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। जब फल के समय तक आत्मा भी नहीं रहती, क्रिया भी उसी क्षण नष्ट हो गई, तब ऐहिक और पारलौकिक क्रियाफल को कौन भोगेगा ? सांख्य मतानुसार एकान्त अविकारी, निष्क्रिय (क्रियारहित) एवं कूटस्थनित्य आत्मा में कर्तृत्व या फलभोक्तृत्व ही सिद्ध नहीं होता / सदा एक-से रहने वाले कूटस्थ नित्य, सर्वप्रपंचरहित, सर्वथा उदासीन आत्मा में किसी प्रकार की कृति नहीं होती कृति के अभाव में कर्तृत्व भी नहीं होता और कतृत्व के अभाव में क्रिया का सम्पादन असम्भव है / ऐसी स्थिति में वह (आत्मा) फलोपभोग कैसे कर सकता है ? जिनके मत में पंचस्कन्धों या पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है, उनके मतानुसार आत्मा (फलभोक्ता) ही न होने से सुख-दुःखादि फलों का उपभोग कौन और कैसे करेगा ? विज्ञान स्कन्ध भी क्षणिक है, ज्ञानक्षण अति सूक्ष्म होने के कारण उसके द्वारा भी सुख-दुःखानुभव नहीं हो सकता। जब आत्मा ही नहीं है, तो बन्ध-मोक्ष, जन्म-मरण, स्वर्ग-नरकगमन आदि की व्यवस्था भी गड़बड़ा जाएगी। मोक्षव्यवस्था के अभाव में इन महाबुद्धिमानों को शास्त्र-विहित सभी प्रवृत्तियां निरर्थक हो जाएंगी। 59 गप" च परं, भिक्खवे, भिक्खु, इममेव कायं यथाठितं, यथापणिहितं धातुसो पच्चवेक्खति-अत्थि इमस्मि ___काये पथवी धातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायुधातु ति / " -सुत्तपिटके मज्झिमनिकाय पालि भा० 3, पृ० 153 (ख) “...तत्थ भूतरूपं चतुम्विधं-पयवीधातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायोधातु ति" / --विसुद्धिमग खंधनिद्देस पु० 306 (ग) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 26-27 63 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 26 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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