________________ सूत्रकृताग--प्रथम अध्ययन–समय एकान्त क्षणिकवाद मानने से जो क्रिया करता है, और जो उसका फल भोगता है, इन दोनों के बीच काफी अन्तर होने से कृतनाश और अकृतागम ये दोनों दोष आते हैं, क्योंकि जिस आत्मक्षण ने क्रिया की, वह तत्काल नष्ट हो गया, इसलिए फल न भोग सका, यह कृतनाश दोष हुआ, और जिसने क्रिया नहीं की, वह फल भोगता है, इसलिए अकृतागम दोष हुआ। ज्ञान संतान भी क्षणिक होने से उसके साथ भी ये ही दोष आजायेंगे। अनेकान्त दृष्टि से आत्मा एवं पदार्थों का स्वरूप निर्णय पदार्थों की समीचीन व्यवस्था के लिए प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव, यों चार प्रकार के अभाव को मानना आवश्यक है / इसलिए क्षणभंगवाद निरूपित वस्तु का सर्वथा अभाव कथमपि संगत नहीं है, प्रध्वंसाभाव के अनुसार वस्तु का पर्याय (अवस्था) परिवर्तन मानना ही उचित है / ऐसी स्थिति में वस्तु परिणामी-नित्य सिद्ध होगी। जैन दृष्टि से आत्मा भी परिणामी नित्य, ज्ञान का आधार, दूसरे भवों में जाने-आने वाला, पंच भूतों से या शरीर से कथंचिभिन्न तथा शरीर के साथ रहने से शरीर से कथंचित् अभिन्न है / वह आत्मा कर्मों के द्वारा नरकादि गतियों में विभिन्न रूपों में बदलता रहता है, इसलिए वह अनित्य और सहेतुक भी है, तथा आत्मा के निजस्वरूप का कदापि नाश न होने के कारण वह नित्य और अहेतुक भी है। इस प्रकार मानने से कर्ता को क्रिया का सुख-दुःखादिरूप फल भी प्राप्त होगा, बन्ध-मोक्षादि व्यवस्था भी बैठ जाएगी।५ सांख्यादिमत-निस्सारला एवं फलति 16. अगारमावसंता वि आरपणा वा वि पध्वया / ___इमं दरिसणमावन्ना सम्बदुक्खा विमुच्चती / / 16 / / 20. ते णावि संधि गच्चा णं न ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते ओहंतराऽऽहिता // 20 // 21. ते णावि संधि णच्चा णं न ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते संसारपारगा / / 21 // 22. ते णावि संधि गच्चा गं न ते धम्मविऊ जणा। __ जे ते उ वाइणो एवं ण ते गम्भस्स पारणा // 22 // 23. ते णावि संधि गच्चा न ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं न ते जम्मस्स पारगा / / 23 / / 64 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 26-27 के आधार पर 65 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 27-28 के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org