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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 116 से 120 137 119. जो पुरुष धर्म का पारगामी और आरम्भ के अन्त (अभाव) में स्थित है, (वही) मुनि है / ममत्वयुक्त पुरुष (परिग्रह का) शोक (चिन्ता) करते हैं, फिर भी अपने परिग्रह (परिग्रह रूप पदार्थ) को नहीं पाते। 120. (सांसारिक पदार्थों और स्वजन वर्ग का) परिग्रह इस लोक में दुःख देने वाला है और परलोक में भी दुःख को उत्पन्न करने वाला है, तथा वह (ममत्व करके गृहीत पदार्थ समूह) विध्वंसविनश्वर स्वभाव वाला है, ऐसा जानने वाला कौन पुरुष गृह-निवास कर सकता है ? विवेचन-परिग्रह-त्याग : क्यों और किसलिए? प्रस्तुत त्रि-सूत्री में परिग्रह त्याग को प्रेरणा दी गई है / सूत्रगाथा 116 में सच्चे अपरिग्रही मुनि की दो अर्हताएँ बतायी हैं-(१) जो श्रुतचारित्र रूप धर्म के सिद्धान्तों में पारंगत हो, (2) जो आरम्भ के कार्यों से दूर रहता है। जो इन दो अर्हताओं से युक्त नहीं है, अर्थात् जो मुनि धर्म के सिद्धान्तों से अनभिज्ञ है, आरम्भ में आसक्त रहता है, धर्माचरण करने में मन्द रहता है, वह इष्ट पदार्थों और इष्टजनों को 'वे मेरे हैं, उन पर मेरा स्वामित्व या अधिकार है, इस प्रकार ममत्व करता है, उनके वियोग में झूरता रहता है, शोक करता है, किन्तु वे पदार्थ उनके हाथ में नहीं आते। तात्पर्य यह है कि इतनी आकुलता-व्याकुलता करने पर भी वे उस पदार्थ को प्राप्त नहीं कर पाते / इसीलिए कहा गया है-'धम्मस्स य पारए""नो य लभंति णियं परिग्गहं / " ___ इस गाथा का यह अर्थ भी सम्भव है-जो मुनि धर्म में पारंगत है, और आरम्भ कार्यों से परे है, उसके प्रति ममत्व और आसक्ति से युक्त स्वजन उसके पास आकर शोक, विलाप और रुदन करते हैं, उस साधु को ले जाने का भरसक प्रयत्न करते हैं, परन्तु वे अपने माने हुए उस परिग्रहभूत (ममत्व के केन्द्र) साधु को नहीं प्राप्त कर सकते, उसे वश करके ले जा नहीं सकते। परिग्रह उभयलोक में दुःखद व विनाशी होने से त्याज्य-इस सूत्र गाथा 120 में परिग्रह क्यों त्याज्य है ? इसके कारण बताये गये हैं--(१) सांसारिक पदार्थ और स्वजन वर्ग के प्रति परिग्रह (ममत्व) रखता है, वह इस लोक में तो दुःखो होता ही है, परलोक में भी दुःख पाता है / (2) परिग्रहीत सजीवनिर्जीव सभी पदार्थ नाशवान हैं। यह जानकर कौन विज्ञ पुरुष परिग्रह के भण्डार गृहस्थवास में रह सकता है ? अर्थात् परिग्रह का आगार गृहस्थवास पूर्वोक्त कारणों से त्याज्य ही है। इह लोक में परिग्रह दुःखदायी है—धन, सोना-चाँदी, जमीन, मकान आदि निर्जीव पदार्थों का परिग्रह (ममत्व) इस लोक में चार कारणों से दुःखदायक होता है-(१) पदार्थों को प्राप्त करने में, (2) फिर उनकी रक्षा करने में, (3) उनके व्यय में दु:ख तथा (4) उनके वियोग में दुःख। 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 63 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10 336 8 (क) अर्थानामजने दुःखजितानां च रक्षणे / आये दुःखं व्यये दुःखं धिमर्थाः कष्टसंश्रयाः / / (ख) राजतः सलिलादग्नेश्चौरतः स्वजनादपि / नित्यं धनवता भीतिर्दश्यते भुवि सर्वदा // -नीतिकार For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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