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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 646 ] / 17 (3) काम-भोग पुष्करिणी का कीचड़ है। जैसे-कीचड़ में फंसा हुआ मानव अपना उद्धार करने में असमर्थ हो जाता है, वैसे ही काम-भोगों में फंसा मानव भी अपना उद्धार नहीं कर सकता। ये दोनों ही समानरूप से बन्धन के कारण हैं। एक बाह्य बन्धन है, दूसरा आन्तरिक बन्धन / (4) आर्यजन और जानपद बहुसंख्यक श्वेतकमल हैं। पुष्करिणी में नानाप्रकार के कमल होते हैं, वैसे ही मनुष्यलोक में नानाप्रकार के मानव रहते हैं / अथवा पुष्करिणी कमलों से सुशोभित होती है, वैसे ही मनुष्यों और उनके देशों से मानवलोक सुशोभित होता है। (5) जैसे पुष्करिणी के समस्त कमलों में प्रधान एक उत्तम और विशाल श्वेतकमल है, वैसे ही मनुष्यलोक के सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ और सब पर शासनकर्ता नरेन्द्र होता है, वह शीर्षस्थ एवं स्व-पर-अनुशास्ता होता है, जैसे कि पुष्करिणी में कमलों का शीर्षस्थ, श्रेष्ठ पुण्डरीक है। (6) अविवेक के कारण पुष्करिणी के कीचड़ में फंस जाने वाले जैसे वे चार पुरुष थे, वैसे हो संसाररूपी पुष्करिणी के काम-भोगरूपी कीचड़ या मिथ्यामान्यताओं के दलदल में फंस जाने वाले चार अन्यतीथिक हैं, जो पुष्करिणी-पकमग्न पुरुषों की तरह न तो अपना उद्धार कर पाते हैं, न ही प्रधान श्वेतकमलरूप शासक का उद्धार कर सकते हैं। (7) अन्यतीथिक गृहत्याग करके भी सत्संयम का पालन नहीं करते, अतएव वे न तो गृहस्थ ही रहते हैं, न साधुपद ~मोक्षपद प्राप्त कर पाते हैं / वे बीच में फंसे पुरुषों के समान न इधर के न उधर के रहते हैं - उभयभ्रष्ट ही रह जाते हैं / (8) जैसे बुद्धिमान् पुरुष पुष्करिणी के भीतर न घुस कर उसके तट पर से ही आवाज देकर उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकाल लेता है, वैसे ही राग-द्वोषरहित साधु काम-भोग रूपी दलदल से युक्त संसारपुष्करिणी में न घुसकर संसार के धर्मतीर्थरूप तट पर खड़ा (तटस्थ-निलिप्त) होकर धर्मकथारूपी आवाज देकर श्वेतकमलरूपी राजा-महाराजा अादि को संसाररूपी पुष्करिणी से बाहर निकाल लेते हैं। (8) जैसे जल और कीचड़ का त्याग करके कमल बाहर (उनसे ऊपर उठ) आता है, इसी प्रकार उत्तम पुरुष अपने अष्टविध कर्मरूपी जल और काम-भोगरूपी कीचड़ का त्याग करके निर्वाणपद को प्राप्त कर लेते हैं / श्वेतकमल का ऊपर उठकर बाहर पाना ही निर्वाण पाना है। धर्मश्रद्धाल राजा आदि के मस्तिष्क में अन्यतीथिकों द्वारा स्वधर्म प्रवेश का तरीका ६४६-इह खलु पाईणं वा पडोणं वा उदोणं वा दाहिणं वा संति एगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुत्वेण लोगं तं उववन्ना, तं जहा-प्रारिया वेगे प्रणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे।। तेसि च णं महं एगे राया भवति महाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारे अच्चंतविसुद्धरायकुल वंसप्पसूते निरंतररायलक्खणविरातियंगमंगे बहुजणबहुमागपूतिते सव्वगुणसमिद्ध खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते माउं पिउं सुजाए दयप्पत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिदे जणवदपिया जणवदपुरोहिते सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससोहे पुरिसपासीविसे पुरिसवरपोंडरीए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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