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________________ 18 // [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्त वित्थिण्णविउलभवण-सयणा-ऽऽसण-जाण-वाहणाइण्णे बहुधणबहुजातरूव-रयए प्रानोगपयोगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्त-पाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूते पडिपुण्णकोस-कोटागाराउहधरे बलवं दुब्बलपच्चामित्ते प्रोहयकंटकं निहयकंटक मलियकंटकं उद्धियकंटकं अकंटयं प्रोहयसत्तू निहयसत्तू मलियसत्तू उद्धि यसत्तू निज्जियसत्तू पराइयसत्तू ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुक्कं रायवण्णओ जहा उववाइए जाव पसंतडिबडमरं रज्जं पसासेमाणे विरहति / ६४६-(श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं-) इस मनुष्य लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उत्पन्न कई प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे कि-उन मनुष्यों में कई आर्य (क्षेत्रार्य आदि) होते हैं अथवा कई अनार्य (धर्म से दूर, पापी, निर्दय, निरनुकम्प, क्रोधमूर्ति, असंस्कारी) होते हैं, कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय / उनमें से कोई भीमकाय (लम्बे और सुदृढ़ शरीर वाले) होते हैं, कई ठिगने कद के होते हैं / कोई (सोने की तरह) सुन्दर वर्ण वाले होते हैं, तो कोई बुरे (काले कलूट) वर्ण वाले। कोई सुरूप (सुन्दर अंगोपांगों से युक्त) होते हैं तो कोई कुरूप (बेडौल, अपंग) होते हैं। उन मनुष्यों में (विलक्षण कर्मोदय से) कोई एक राजा होता है। वह (राजा) महान् हिमवान् मलयाचल, मन्दराचल तथा महेन्द्र पर्वत के समान सामर्थ्यवान् अथवा वैभववान् होता है / वह अत्यन्त विशुद्ध राजकुल के वंश में जन्मा हुआ होता है। उसके अंग राजलक्षणों से सुशोभित होते हैं। उसकी पूजा-प्रतिष्ठा अनेक जनों द्वारा बहुमानपूर्वक की जाती है, वह गुणों से समृद्ध होता है, वह क्षत्रिय (पीड़ित प्राणियों का त्राता-रक्षक) होता है / वह सदा प्रसन्न रहता है। वह राजा राज्याभिषेक किया हुआ होता है। वह अपने माता-पिता का सुपुत्र (अंगजात) होता है। उसे दया प्रिय होती है / वह सीमंकर (जनता की सुव्यवस्था के लिए सीमा-नैतिक धार्मिक मर्यादा स्थापितनिर्धारित करने वाला) तथा सीमंधर (स्वयं उस मर्यादा का पालन करने वाला) होता है / वह क्षेमंकर (जनता का क्षेम-कुशल करने वाला) तथा क्षेमन्धर (प्राप्त योगक्षेम का वहन-रक्षण करने वाला) होता है। वह मनुष्यों में इन्द्र, जनपद (देश या प्रान्त) का पिता, और जनपद का पुरोहित (शान्तिरक्षक) होता है। वह अपने राज्य या राष्ट्र की सुख-शान्ति के लिए सेतुकर (नदी, नहर, पुल बांध आदि का निर्माण कराने वाला) और केतुकर (भूमि, खेत, बगीचे आदि की व्यवस्था करने वाला) होता है। वह मनुष्यों में श्रेष्ठ, पुरुषों में वरिष्ठ, पुरुषों में सिंहसम, पुरुषों में आसीविष सर्प समान, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीकतुल्य, पुरुषों में श्रेष्ठ मत्तगन्धहस्ती के समान होता है। वह अत्यन्त धनाढ्य, दीप्तिमान (तेजस्वी) एवं प्रसिद्ध पुरुष होता है। उसके पास विशाल विपुल भवन, शय्या, आसन, यान (विविध पालकी आदि) तथा वाहन (घोड़ा-गाड़ी, रथ आदि सवारियाँ एवं हाथी, घोड़े आदि) की प्रचुरता रहती है। उसके कोष (खजाने) प्रचुर धन, सोना, चाँदी आदि से भरे रहते हैं / उसके यहां प्रचुर द्रव्य की आय होती है, और व्यय भी बहुत होता है। उसके यहाँ से बहुत-से लोगों को पर्याप्त मात्रा में भोजन-पानी दिया जाता है। उसके यहां बहुत-से दासी-दास, गाय, बैल, भैस, बकरी आदि पशु रहते हैं। उसके धान्य का कोठार अन्न से, धन के कोश (खजाने) प्रचुर द्रव्य से और आयुधागार विविध शस्त्रास्त्रों से भरा रहता है / वह शक्तिशाली होता है / वह अपने शत्रुओं को दुर्वल बनाए रखता है। उसके राज्य में कंटक - चोरों, व्यभिचारियों, लुटेरों तथा उपद्रवियों एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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