________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 647 ] [ 19 दुष्टों का नाश कर दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, उन्हें कुचल दिया जाता है, उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, जिससे उसका राज्य निष्कण्टक (चोर आदि दुष्टों से रहित) हो जाता है। उसके राज्य पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं को नष्ट कर दिया जाता है, उन्हें खदेड़ दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, अथवा उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, उन शत्रुओं को जीत लिया जाता है, उन्हें हरा दिया जाता है। उसका राज्य दुर्भिक्ष और महामारी आदि के भय से विमुक्त होता है। यहां से ले कर "जिसमें स्वचक्र-परचक्र का भय शान्त हो गया है, ऐसे राज्य का प्रशासन-पालन करता हुआ वह राजा विचरण करता है," यहाँ तक का पाठ औपपातिकसूत्र में वणित पाठ की तरह समझ लेना चाहिए। 647 -तस्स णं रण्णो परिसा भवति-उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इक्खागा इक्खागपुत्ता नाया नायपुत्ता कोरव्या कोरव्वषुत्ता भडा भडपुत्ता माहणा माहणपुता लेच्छई लेच्छइपुत्ता पसस्थारो पसस्थपुत्ता सेणावती सेणावतिपुत्ता। तेसिं च णं एगतिए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य पहारेंसु गमणाए, तत्थऽन्नतरेणं धम्मेणं पण्णतारो वयमेतेणं धम्मेणं पण्णवइस्सामो, से ए वमायाणह भयंतारो जहा मे एस धम्मे सुयक्खाते सुपण्णत्ते भवति / 647 -- उस राजा की परिषद् (सभा) होती है। उसके सभासद ये होते हैं-उग्रकुल में उत्पन्न उग्रपुत्र, भोगकुल में उत्पन्न भोग तथा भोगपुत्र इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न तथा इक्ष्वाकुपुत्र, ज्ञातृकुल में उत्पन्न तथा ज्ञातपुत्र, कुरुकुल में उत्पन्न-कौरव, तथा कौरवपुत्र, सुभटकुल में उत्पन्न तथा सुभट-पुत्र, ब्राह्मणकुल में उत्पन्न तथा ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवी नामक क्षत्रियकुल में उत्पन्न तथा लिच्छवीपुत्र, प्रशास्तागण (मंत्री आदि बुद्धिजीवी वर्ग) तथा प्रशास्तुपुत्र (मंत्री आदि के पुत्र) सेनापति और सेनापतिपुत्र ! ___ इनमें से कोई एक धर्म में श्रद्धालु होता है / उस धर्म-श्रद्धालु पुरुष के पास श्रमण या ब्राह्मण (माहन) धर्म प्राप्ति की इच्छा से जाने का निश्चय (निर्धारण) करते हैं। किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले वे श्रमण और ब्राह्मण यह निश्चय करते हैं कि हम इस धर्मश्रद्धालु पुरुष के समक्ष अपने इस (अभीष्ट) धर्म की प्ररूपणा करेंगे। वे उस धर्मश्रद्धालु पुरुष के पास जाकर कहते हैं-हे संसारभीरु धर्मप्रेमी ! अथवा भय से जनता के रक्षक महाराज ! मैं जो भी उत्तम धर्म की शिक्षा आप को दे रहा हूँ उसे ही आप पूर्वपुरुषों द्वारा सम्यक्प्रकार से कथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) समझे।" विवेचन-धर्मश्रद्धालु राजा आदि के मस्तिष्क में अन्यतीथिकों द्वारा स्वधर्म-प्रवेश का तरीका-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. सं. 646-647) में शास्त्रकार अनेक विशेषणों से युक्त राजा और उसकी राज्यसभा के क्षत्रिय, मंत्री, ब्राह्मण आदि विविध सभासदों का विस्तार से निरूपण करते हैं, तत्पश्चात् इनमें से किसी-किसी धर्म श्रद्धालु के मस्तिष्क में अन्यतीथिक श्रमण-ब्राह्मण अपने धर्म की मान्यता ठसाने का किस प्रकार से उपक्रम करते हैं, वह संक्षेप में बताते हैं। शास्त्रकार इस विस्तृत पाठ में चार तथ्यों का वर्णन करते हैं--- (1) पूर्वादि दिशाओं से समागत आर्य-अनार्य आदि नाना प्रकार के पुरुषों का वर्णन / (2) उन सबके शास्ता-राजा का वर्णन / (3) उक्त राजा को परिषद् के विभिन्न सभासदों का वर्णन / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org