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________________ 16 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६४५-से बेमि-लोयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! सा पुक्खरणी बुइता, कम्मच खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से उदए बुइते, काममोगा य खलु मए प्रप्पाहटु समणाउसो ! से सेए बुइते, जण-जाणवयं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! ते बहवे पउमवरपुडरीया बुइता, रायाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइते, अन्नउत्थिया य खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! ते चत्तारि पुरिसजाता बुइता, धम्मं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से भिक्खू बुइते, धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से तीरे बुइए, धम्मकहं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से सद्दे बुइते, नेव्वाणं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! से उप्पाते बुइते, एवमेयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से एवमेयं बुइतं / / ६४५-(सुनो,) उस अर्थ को मैं कहता हूँ--"आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मान कर (मात्र रूपक के रूप में कल्पना कर)इस लोक को पुष्करिणी कहा है। और हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से विचार करके कर्म को इस पुष्करिणी का जल कहा है / आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से स्थिर करके काम भोगों को पुष्करिणी का कीचड़ कहा है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी दृष्टि से चिन्तन करके आर्य देशों के मनुष्यों और जनपदों (देशों) को पुष्करिणी के बहुत से श्वेतकमल कहा है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से अपने मन में निश्चित करके राजा को उस पुष्करिणी का एक महान् श्रेष्ठ श्वेतकमल (पुण्डरीक) कहा है / और हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मान कर अन्यतीथिकों को उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंसे हुए चार पुरुष बताया है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी बुद्धि से चिन्तन करके धर्म को वह भिक्षु बताया है। आयुष्मान श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से अपने आप सोचकर धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तट बताया है। और प्रायुष्मान् श्रमणो! मैंने अपनी आत्मा में निश्चित करके धर्मकथा को उस भिक्षु का वह शब्द (आवाज) कहा है। आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपने मन में स्थिर करके निर्वाण (समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष या सिद्धशिला स्थान) को श्रेष्ठ पुण्डरीक का पुष्करिणी से उठ कर बाहर पाना कहा है। (संक्षेप में) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने इस (पूर्वोक्त) प्रकार से अपनी आत्मा में निश्चय करके (यत्किञ्चित् साधर्म्य के कारण) इन पुष्करिणी आदि को इन लोक आदि के दृष्टान्त के रुप में प्रस्तुत किया है। विवेचन–दृष्टान्त दार्शन्तिक की योजना--प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-श्रमणियों की जिज्ञासा देखकर उनको दृष्टान्तों का अर्थघटन करके बताने का आश्वासन दिया है, द्वितीय सूत्र में महावीर प्रभु ने अपनी केवलज्ञानरूपी प्रज्ञा द्वारा निश्चित करके पुष्करिणी प्रादि दृष्टान्तों का विविध पदार्थों से उपमा देकर इस प्रकार अर्थघटन किया है (1) पुष्करिणी चौदह रज्जू-परिमित विशाल लोक है / जैसे पुष्करिणी में अगणित कमल उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं, वैसे ही लोक में अगणित प्रकार के जीव स्व-स्वकर्मानुसार उत्पन्नविनष्ट होते रहते हैं। पुष्करिणी अनेक कमलों का आधार होती है, वैसे ही मनुष्यलोक भी अनेक मानवों का आधार है। (2) पुष्करिणी का जल कर्म है / जैसे पुष्करिणी में जल के कारण कमलों की उत्पत्ति होती है, वैसे ही आठ प्रकार के स्वकृत कर्मों के कारण मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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