________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय शरणागत अनुयायी (शिष्य) की आत्मरक्षा कैसे करेंगे? इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-'न सरणं / कहींकहीं 'भोऽसरणं' पाठ भी है, उसका भी अर्थ यही है / सरलात्मा निर्ग्रन्थ साधुओं को सावधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे तथाकथित प्रव्रजितों के आडम्बर एवं वाक्छटा से प्रभावित होकर उनके चक्कर में साधु न आयें। अणुक्फसे - आठ प्रकार के मदों में से कोई भी मद न करे। तीन सावधानियाँ-पूर्वोक्त अन्यतीथिक साधु के मिल जाने पर उसे भली-भांति जान-परख लेने के बाद यदि विज्ञ साधु को ऐसा प्रतीत हो कि तथाकथित अन्यतोर्थी साधु मूढ़ मान्यताओं का है, मिथ्याभिमानी है, हठाग्र ग्रही है, उसके मन में रोष एवं द्वेष है, उसका आचार-विचार अतीव निकृष्ट है, न उरामें जिज्ञासा है, न सरलता, तब क्या करे ? उसके साथ कैसे बरते, कैसे निपटे ? इसके लिए शास्त्रकार ने तीन सावधानियाँ, तीन विवेक सूत्रों के रूप में प्रस्तुत की हैं (1) विज्ज तेसुण मुच्छए, (2) अप्पलोणे, (3) मज्झण मुणि जावए इनका आशय यह है कि विज्ञ साधु उक्त साधु के प्रति किसी प्रकार की ममता-मूर्छा न रखे, उसके साथ अन्तर् से लिप्त-संसक्त, संसर्गयुक्त न हो / तृतीय कर्तव्यबोध : निरारम्भी निष्परिग्रहियों की शरण में जाये-सुत्रगाथा 78 में शास्त्रकार ने आरम्भ-परिग्रह में आसक्त पुरुष भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, इस सस्ते मोक्षवाद के प्रवर्तकों या मतवादियों से सावधान रहने तथा निरारम्भी निष्परिग्रही महान् आत्माओं की शरण में जाने का निर्देश दिया है। प्रश्न होता है-७६वीं सूत्रगाथा में भी शरण के अयोग्य व्यक्तियों की पहचान बतायी गयी थी, उससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता था कि जो साधक आरम्भ-परिग्रह से मुक्त हैं, उन्हीं की शरण लेनी चाहिए, फिर यहाँ पुन: उस बात को शास्त्रकार ने क्यों दुहराया ? इसका समाधान यह है कि "शास्त्रकार यहाँ एक विचित्र मोक्षवादी मत का रहस्योद्घाटन करते हुए उक्त मतवादी साधकों की शरण कतई न स्वीकारने का स्पष्ट रूप से निर्देश कर रहे हैं कि निरारम्भी और निष्परिग्रही निम्रन्थ की शरण में जाओ।" यद्यपि शास्त्रकार ने 'सपरिग्गहा या सारम्भा' इन दो शब्दों का प्रयोग किया है, परन्तु वृत्तिकार आशय स्पष्ट करते हुए कहते हैं-सपरिग्रह और सारम्भ प्रबजित भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। मोक्ष के विषय में ऐसा कतिपय मतवादियों का कथन है / जो धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद, मकान, जमीनजायदाद, शारीरिक सुखोपभोग सामग्री तथा स्त्री-पुत्र आदि पर स्व-स्वामित्व एवं ममत्व रखते हैं, वे 'सपरिग्रहः' कहलाते हैं। जो षटकायिक जीवों का उपमर्दन करने वाली प्रवृत्तियाँ करते हैं, अथवा जो 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 48-46 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 252 से 255 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org