________________ 86 चतुर्य उद्देशक : गाथा 76 से 79 स्वयं आरम्भ-समारम्भ न करते हुए भी आरम्भानुमोदक-औद्देशिक आहार करते हैं, वे सारम्भ कहलाते हैं। फिर वे प्रवजित हों, किसी भी देश में हों या अप्रवजित, आरम्भ-परिग्रह से युक्त हों तो भी वे मोक्षमार्ग के साधक हैं। इन दो कारणों से ये तथाकथित मोक्षवादी शरण ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। ऐसी सुविधाजनक, आसान, सस्ती आरम्भ-परिग्रहवादियों की मोक्ष-कल्पना के चक्कर में आकरकोई मुमुक्षु साधक फँस न जाये, इसीलिए शास्त्रकार को स्पष्ट कहना पड़ा--जो आरम्भ-परिग्रह से सर्वथा रहित, भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ साधक हैं, जो संयम-पालन के लिए-जीवन टिकाने हेतु नियमप्राप्त भोजन, वस्त्र आदि लेते हैं, धर्मोपकरण, पुस्तक आदि सामग्री के सिवाय वे अपने स्वामित्व या ममत्व से युक्त कोई भी धन-धान्यादि नहीं रखते, न ही पचन-पाचनादि आरम्भ करते हैं, अहिंसादि महावतों में लीन समताधारी उन निग्रन्थों की शरण में जाना चाहिए / यही शास्त्रकार का आशय है। चतुर्थ कर्तव्यबोध : आसक्ति से मुक्त एवं त्रिविध एषणा से युक्त आहार करे---सूत्रगाथा 76 में आरम्भ एवं परिग्रहों से मुक्त होने के लिए राग-द्वोष, आसक्ति आदि से मुक्त होकर त्रिविध एषणाओं से युक्त आहार-ग्रहण एवं उपभोग करने का विधान है / साधु-जीवन में मुख्यतया तीन आवश्यकताएँ होती हैंभोजन, वस्त्र और आवास / तीनों में मुख्य समस्या भोजन की है, क्योंकि अहिंसा महाव्रती साधु न स्वयं भोजन पकाता है, न पकवाता है और न ही भोजन बनाने का अनुमोदन करता है क्योंकि इस कार्य से हिंसा होती है। हिंसाजनक कार्य को ही आरम्भ कहा जाता है। अतः साधु को आहार सम्बन्धी उक्त आरम्भ से बचना आवश्यक है। तब फिर प्रश्न हुआ कि आहार कैसे, किससे और कहाँ से ले, जिससे आरंभदोष से बच सके ? इसी समस्या का समाधान शास्त्रकार ने चार विवेक-सूत्रों में दिया है (1) कडेसु घासमेसेज्जा, 12) बिऊ दस सणं चरे, (3) अगिद्धो विप्पमुक्को य, (4) ओमाणं परिवज्जए। इन्हें शास्त्रीय परिभाषा में आहार-सम्बन्धी तीन एषणाएँ कह सकते हैं-(१) गवेषणा, (2) ग्रहणषणा, (3) ग्रासैषणा या परिभोगैषणा / इन्हीं तीनों के कुल मिलाकर 47 दोष होते हैं, वे इस प्रकार वर्गीकृत किये जा सकते हैं-गवेषणा के 32 दोष (16 उद्गम के एवं 16 उत्पाद के), ग्रहणषणा के 10 एवं परिभागैषणा के 5 दोष / 16 उद्गम दोष ये हैं, जो मुख्यतया गृहस्थ से आहार बनाते समय लगते हैं(१) आधाकर्म, (6) प्राभृतिका, (11) अभिहृत, (2) औद्दे शिक, (7) प्रादुष्करण, (12) उद्भिन्न, (3) पूतिकर्म, (8) क्रीत, (13) मालाहृत, (4) मिश्रजात, (8) प्रामित्य (14) आच्छेद्य, (5) स्थापना, (10) परिवर्तित, (15) अनिःसृष्ट (16) अध्यवपूरक दोष। (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति. पत्रांक 46 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 256 से 261 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org