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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाया 76 से 76 ऽवसीयई' पाठ है, जिसका अर्थ होता है-"जिस अज्ञान में पड़कर अज्ञजीव दुःखित होते हैं, उसी अज्ञान में ये अन्यतीर्थी बाल (अज्ञ) पड़कर दुःखित होते हैं।' / एते जिता-'एते' शब्द से वृत्तिकार पंचभूतवादी, एकात्मवादी, तज्जीव-तच्छरीरवादी, कृतवादी अवतारवादी. सिद्धिवादी आदि पर्वोक्त सभी मतवादियों का ग्रहण कर लेते हैं, क्योंकि तथाकथित मतवादी गृहत्यागियों में ये सब कारण पाये जाते हैं, जो उन्हें शरण के अयोग्य सिद्ध करते हैं। जिन्हें आत्मापरमात्मा, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ कर्मों का ही यथार्थ बोध नहीं है, जो बन्ध और मोक्ष के तत्त्व से अनभिज्ञ हैं, अथवा जो देव, ब्रह्मा, ईश्वर, अवतार आदि किसी न किसी शक्ति के हाथों में अपने बन्ध-मोक्ष या डूबने-तरने का भार सौंपकर निश्चिन्त हो जाते हैं, वे भला हिंसादि पापों या आरम्भपरिग्रह से बचने की चिन्ता क्यों करेंगे? वे तो बेखटके परिग्रह में आसक्त होंगे और नाना आरम्भजनक प्रवृत्ति करेंगे। प्रव्रजित जीवन में आने वाले कष्टों या उपसर्गों को भी क्यों सहन करेंगे? तथा काम, क्रोध आदि को भी घटाने या मिटाने का पुरुषार्थ क्यों करेंगे? इसीलिए शास्त्रकार ठीक कहते हैं'एते जिता'- अर्थात् ये परीषहों, उपसर्गों तथा कामादि शत्रुओं से हारे हुए हैं, उनका सामना नहीं कर सकते। हेच्चा सिया फिच्चोवदेसगा-इसका भावार्थ यह है कि जिस घर बार, कुटुम्ब-कबीला, जमीनजायदाद, धन-धान्य, आरम्भ-समारम्भ (गार्हस्थ्य-प्रपञ्च) आदि को पहले त्याज्य समझकर छोड़ा था, प्रवजित होकर मोक्ष के लिए उद्यत हुए थे, उन्हीं गृहस्थ सम्बन्ध परिग्रहों को शिष्य-शिष्या, भक्त-भक्ता, आश्रम ,जमीन-जायदाद, धान्य-संग्रह, भेंट-दान आदि के रूप में सम्पत्ति ग्रहण तथा आये दिन बड़े भोजन समारोह के लिए आरम्भ-समारम्भ आदि के रूप में पुनः स्वीकार कर लिया, साथ हो गृहस्थों को उन्हीं सावध (आरम्भ-समारम्भ युक्त) कृत्यों का उपदेश देने लगे। अतः वे प्रवजित होते हुए भी गृहस्थों से भिन्न नहीं, अपितु उन्हीं के समान परिग्रहधारी एवं समस्त सावद्य प्रवृत्तियों के अनुमोदक, प्रेरक एवं प्रवर्तक बन बैठे। ___ इन सब कारणों से वे शरण-योग्य नहीं है, क्योंकि जब वे स्वयं आत्मरक्षा नहीं कर सकते तो (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृ० पत्रांक 46-47 के आधार पर (ख) देखिये-सुत्तपिटक दीघनिकाय (क.लि भा० 1) सामनफल सुत्त पृ० 41-53 में पूरण काश्यप का मत "पूरणो कस्सपो में एतदवोच-करोतो खो, महाराज, कारयतो छिन्दते छेदापयतो"न करीयति पापं.... नत्थि ततो निदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो। दानेन, दमेन, सच्चवज्जे नत्यि पूछ, नत्थि पुश्मस्स आगमो ति.... (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 247-248 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 47.48 के आधार पर (ग) पंचसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः / कुण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यन्ते यास्तु वाहयन् / / -मनुस्मृति महस्थ के घर में पांच कसाईखाने (हिंसा के उत्पत्तिस्थान) होते हैं, जिन्हें निभाता हुआ वह हिंसा (आरम्भजन्य) में प्रवृत्त होता है / वे पांच ये हैं-चूल्हा, चक्की, झाडू, ऊखली और पानी का स्थान (परिडा)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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