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________________ गाथा 597 से 606 436 सिद्धान्त को छिपाकर न बोले, (30) आत्मत्राता साधु सूत्र एवं अर्थ (या प्रश्न) को अन्यथा (उलट-पुलट) न करे, (31) शिक्षादाता प्रशास्ता की सेवा भक्ति का ध्यान रखे, (32) सम्यक्तया सोच-विचार कर कोई बात कहे, (33) गुरु से जैसा सुना है, दूसरे के समक्ष बैसे ही सिद्धान्त या शास्त्र-वचन की प्ररूपणा करे (34) सुत्र का उच्चारण, अध्ययन, एवं प्ररूपणा शुद्ध करे, (35) शास्त्र-विहित तपश्चर्या की प्रेरणा करे, (36) उत्सर्ग-अपवाद, हेतुग्राह्य-आज्ञाग्राह्य या स्वसमय-परसमय आदि धर्म का या शास्त्र वाक्य को यथायोग्य स्थापित-प्रतिपादित करता है, वही ग्राह्यवाक्य, शास्त्र का अर्थ करने में कुशल एवं सुविचारपूर्वक भाषण करने वाला है, वही सर्वज्ञोक्त समाधि की व्याख्या कर सकता है / गुरुकुलवासी साधक उभयशिक्षा प्राप्त करके भाषा के प्रयोग में अत्यन्त निपुण हो जाता है / पाठान्तर और व्याख्या-- 'सकेज्ज याऽसक्तिभाव भिक्खू' के बदले चणिसम्मत पाठान्तर है- "संकेज्ज या संक्तिभाव भिक्खू"; व्याख्या यों है---यदि किसी विषय में वह शंकित है, किसी शास्त्रवाक्य के अर्थ में शंका है तो वह शंकात्मक रूप से इस प्रकार प्रतिपादन करे कि मेरी समझ में इसका यह अर्थ है। इससे आगे जिन भगवान् जानें, 'तत्वं केवलिगम्यम्' / 'अणाइलो' के बदले पाठान्तर है-'अणाउलो'; व्याख्या यों है-साधु व्याख्यान या धर्मकथा के समय आकुल-व्याकुल न हो / ' विमज्जवादं च वियागरेज्जा-व्याख्याएँ-(२) विभाज्यवाद का अर्थ है-भजनीयवाद। किसी विषय में शंका होने पर भजनीयवाद द्वारा यों कहना चाहिए-मैं तो ऐसे मानता है, परन्तु इस विषय में अन्यत्र भी पूछ लेना। (2) विभज्यवाद का अर्थ है-स्याद्वाद-अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद / (3) विभज्यवाद का अर्थ है--पृथक अर्थ निर्णयवाद। (4) सम्यक प्रकार से अर्थों का नय, निक्षेप आदि से विभाग-विश्लेषण करके पृथक करके कहे, जैसे-द्रव्याथिकनय से नित्यवाद को, तथा पर्यायाथिकनय से अनित्यवाद को कहे। सुत्तपिटक अंगुत्तरनिकाय में भी विभज्जवाद' का उल्लेख आता है।' / / ग्रन्थ : चौदहवां अध्ययन समाप्त / / 0000 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 247 से 251 का सारांश / 8 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 106 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 246 6 (क) सूत्रकृतांग मूलपाठ टिप्पण, तृतीय परिशिष्ट पृ० 368 / (ख) तुलना-न खो, भंते, भगवा सव्वं तपं गरहितं....."भगवा गरहंतो पसंसितवं, पसंसन्तो 'विभज्ज वादो' भगवा / न सो भगवा एत्थ एकंसवादोदित / -सुत्तपिटक अंगुत्तरनिकाय पृ० 253 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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