________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 267 पालन करते हैं, और उसी को संयमपथ या मोक्षमार्ग बताते हैं / अथवा उसी की विशेषता बताते हैं, उसी के समर्थन में तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। अपने द्वारा स्वीकृत मार्ग को ही वे ध्रुव (धोरी या उत्सर्ग) मार्ग बतलाते हैं / वे द्रव्यसाधु ऐसी प्ररूपणा इसलिए करते हैं कि घरवार, कुटुम्ब कबीला और धनसम्पत्ति आदि पूर्वसंग छोड़ देने के बावजूद भी मोह कर्मोदयवश वे पुनः स्त्रियों से संसर्ग, भक्तभक्ताओं से अतिपरिचय, परिजनों से मोहममता आदि के कारण न तो वे पूरे साधुजीवन के मौलिक आचार का पालन कर पाते हैं और न ही वे गृहस्थजीवन के आचार का पूर्णतया पालन करते है। इसी कारण वे ऐसे स्वकल्पित मिश्रमार्ग को अपना लेते हैं। उन कुशीलों के द्वारा मिश्र मार्ग का यह प्रतिपादन केवल वाणी की ही शूरवीरता समझनी चाहिए। उनके द्वारा इस मिश्रमार्ग को अपनाने के पीछे कोई शास्त्रसम्मत आचार का वल नहीं है। यह साधु-जीवन की एक विडम्बना ही है, जिसे शास्त्रकार इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं- 'बहवे गिहाई... "वायावीरियं कुसोलाणं / ' नौवीं अवदशा--स्त्रीसंगरूप उपसर्ग से पराजित कुशील साधक को पतन दशा यहाँ तक हो जाती है कि वह शीलभ्रष्ट, अशुद्ध एवं दोषयुक्त होते हुए भी भरी सभा में अपने आपको शुद्ध, निर्दोष एवं दूध का धोया कहता है / वह भरी सभा में जोर से गर्जता हुआ कहता है--मैं शुद्ध-पवित्र हूँ, मेरा जीवन निष्पाप है / परन्तु उसके काले कारनामों को जानने वाले जानते हैं कि उसकी शुद्धता की दुहाई धोखा है, प्रवंचना है, छलावा है। वह छिप-छिपकर एकान्त में पापकर्म करता है, यह मायावी और महाधूर्त है। शास्त्रकार सुत्रगाथा 264 द्वारा इसी बात को कहते हैं-'सद्ध रवति ......"महासढेऽयं ति। आशय यह है कि उसकी विसंगत दिनचर्या से, उसके शिथिल आचार-विचार से, तथा उसकी अंगचेष्टाओं पर से यह भलीभाँति जानते हैं कि यह केवल वचन के गुब्बारे उछालता है। यह जितना और जो कुछ कहता है, आचरण में उतना ही विपरीत है / मोहान्धपुरुष अँधेरे में छिपकर कुकृत्य करता है, और सोचता है कि मेरे पापकर्म को कौन जानता है ? मगर नीतिकार कहते हैं "आकारिंगित र्गत्या चेष्टया भाषणेन च / नेत्र-वस्त्रविकारेण लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः // " अर्थात्-आकृति से इशारों से, गति (चाल-ढाल) से, चेष्टा से, भाषण (बोली) से, तथा आँख और मुंह के विकारों से किसी व्यक्ति के अन्तर्मन में रही हुई बात परिलक्षित हो जाती है। साधारण मनोविज्ञान के अभ्यासियों या सतत सम्पर्क में रहने वालों से उस व्यक्ति के दुष्कर्म छिपे नहीं रह सकते। दसवीं अवदशा-ऐसा दुष्कर्मी द्रव्यलिंगी अज्ञपुरुष अपने दुष्कर्म (पाप) को स्वयं आचार्य या गुरु के समक्ष प्रकट नहीं करता, वह चाहे जितना पापकर्म करता हो, वाहर से तो वह धर्मात्मा ही कहलाना चाहता है / मिष्ठ कहलाने की अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वह गुप्त रूप से पाप या कुशील सेवन करता है, ताकि कोई उसे पापी न कह सके किन्तु उसके प्रच्छन्त्र पापों के जानकार गुरु, आचार्य या कोई हितैषी व्यक्ति उसे अपने पापों या दुष्कृत्यों को प्रकट करने या कहने के लिए आदेश या प्रेरणा देते हैं तो वह उनकी बातों को ऊपर ही ऊपर उड़ा देता है, या सुनी-अनसुनी कर देता है / इसके पश्चात् आचार्य या गुरु उसकी थोथी बातें सुनकर सखेद बार-बार कहासुनी करते या प्रेरणा देते हैं कि 'तुम आज से मन से भी मैथुनसेवन की इच्छा मत करो, तब वह एकदम मुर्दा जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org