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________________ 208] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (8) तत्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो [अामरणंताए दंडे णिक्खित्ते] ते ततो पाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता ते तत्थ परेणं चेव जे तस-थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो प्रामरणंताए [दंडे णिक्खित्ते] तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते पाणा वि जाव अयं पि मे देसे णो णेयाउए भवति / ८६५-(अन्त में) भगवान गौतमस्वामी ने कहा-जगत में कई श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, जो इस प्रकार (साधु के समक्ष) प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं—(गुरुदेव !) हम मुण्डित होकर घरबार छोड़ कर अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ नहीं हैं, न हम चतुदर्शी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषधवत का विधि अनुसार पालन करने में समर्थ हैं, और न ही हम अन्तिम समय में अपश्चिममारणान्तिक संलेखना-संथारा की आराधना करते हुए विचरण करने में समर्थ हैं / हम तो सामायिक एवं देशावकाशिक व्रतों को ग्रहण करेंगे, हम प्रतिदिन प्रातःकाल पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में (अमुक ग्राम, पर्वत, घर या कोस आदि तक के रूप में) गमनागमन की मर्यादा करके या देशावकाशिक मर्यादाओं को स्वीकार करके उस मर्यादा से बाहर के सर्वप्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दण्ड देना छोड़ देंगे। इस प्रकार हम समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के क्षेमंकर होंगे। (1) ऐसी स्थिति में (श्रमणोपासक के व्रतग्रहण के समय) स्वीकृत मर्यादा के (अन्दर) रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं, जिनको उसने अपने व्रतग्रहण के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड देने का प्रत्याख्यान किया है, वे प्राणी (मृत्यु के समय) अपनी आयु (देह) को छोड़कर श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्दर क्षेत्रों (प्रदेशों) में उत्पन्न होते हैं, तब भी श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनमें (चरितार्थ हो कर) सप्रत्याख्यान होता है। वे श्रावक की दिशामर्यादा से अन्दर के क्षेत्र में पहले भी त्रस थे, बाद में भी मर्यादा के अन्दर के क्षेत्र में त्रसरूप में उत्पन्न होते हैं) इसलिए वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रमणोपासक के पूर्वोक्त प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना कथमपि न्याययुक्त नहीं है / (2) श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्दर के प्रदेश में रहने वाले जो स प्राणी हैं, जिनको दण्ड देना श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के समय से लेकर मरणपर्यन्त छोड़ दिया है। वे जब आयु (देह) को छोड़ देते हैं और पुनः श्रावक द्वारा गृहीत उसी मर्यादा के अन्दर वाले प्रदेश में स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं; जिनको श्रमणोपासक ने अर्थदण्ड (प्रयोजनवश हनन करने) का त्याग नहीं किया है, किन्तु उन्हें अनर्थ दण्ड (निरर्थक हनन) करने का त्याग किया है / अत: उन (स्थावरप्राणियों) को श्रमणोपासक अर्थ (प्रयोजन) वश दण्ड देता है, अनर्थ (निष्प्रयोजन) दण्ड नहीं देता / वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस भी कहलाते हैं। वे चिरस्थितिक भी होते हैं / अतः श्रावक का त्रसप्राणियों की हिंसा का और स्थावरप्राणियों की निरर्थक हिंसा का प्रत्याख्यान सविषय एवं सार्थक होते हुए भी उसे निर्विषय बताना न्यायोचित नही है / (३)-(श्रमणोपासक द्वारा गहीत मर्यादा के) अन्दर के प्रदेश में जो त्रस प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग किया है; वे मृत्यु का समय आने पर अपनी आयु (देह) को छोड़ देते हैं, वहाँ से देह छोड़ कर वे (त्रसप्राणी) निर्धारित-मर्यादा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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