________________ 425 गाथा 576 (3) चतुर्गतिक संसार, उसमें परिभ्रमण के मिथ्यात्वादि हेतु कर्मबन्ध, समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष, उसके सम्यग्दर्शनादि कारण आदि सबको सम्यक् जानकर तथा आचार्यादि से सुनकर साधु जनहित-कारक धर्म का उपदेश करे। (4) जो कार्य निन्द्य एवं निदान युक्त किये जाते हैं, वीतराग-धर्मानुगामी सुधीर साधक न तो उनका स्वयं आचरण करे, और न ही दूसरों को ऐसे अकरणीय कार्यों की प्रेरणा दे। (5) साधु उपदेश देने से पहले श्रोता या परिषद् के अभिप्रायों को अपनी तर्कबुद्धि एवं अनुमान से भली-भाँति जान ले, तत्पश्चात् ही उपदेश दे अन्यथा उपदेशक पर अश्रद्धा करके वे क्षद्रता पर उतर सकते हैं, उस पर पालक द्वारा स्कन्दक मुनिवत् मरणान्तक प्रहारादि भी कर सकते हैं। (6) धीर साधक श्रोताओं के कर्म (आचरण या व्यवसाय) एवं अभिप्राय का समीचीन विचार करके वस-स्थावर जीवों के लिए हितकर धर्म का उपदेश दे। (7) वह इस प्रकार का उपदेश दे, जिससे श्रोताओं के मिथ्यात्वादि-जनित कर्म दूर हों, जैसेबाहर से सुन्दर दिखाई देने वाले नारीरूप में आसक्त जीव विनष्ट हो जाते हैं, इत्यादि बात श्रोताओं के दिमाग में युक्तिपूर्वक ठसाने से उनको विषयों के प्रति आसक्ति दूर हो सकती है। (8) साधु अपनी पूजा, सत्कार प्रशंसा, कीर्ति या प्रसिद्धि आदि प्राप्त करने की दृष्टि से धर्मोपदेश न दे। () उपदेश सुनमे न सुनने अथवा उपदेश के अनुसार आचरण करने न करने वाले पर प्रसन्न या अप्रसन्न होकर या राग या द्वष से प्रेरित होकर साधु किसी का इष्ट (प्रिय) या अनिष्ट न करे, अथवा श्रोता को प्रिय लगने वाली स्त्रीविकथा, राजविकथा, भोजनविकथा, देशविकथा अथवा सावधप्रवृति प्रेरक कथा न करे, न ही किसी समूह को अप्रिय लगने वाली, उस समूह के देव, गुरु की कटु शब्दों में आलोचना, निन्दा, मिथ्या आक्षेप आदि से युक्त कथा करे। (10) पूर्वोक्त सभी अनर्थों का परित्याग करके साधु शान्त, अनाकुल, एवं कषाय-रहित होकर धर्मोपदेश दे। साधु धर्म का यथा तथ्यरूप में प्राणप्रण से पालन करे 576 आहत्तहियं समुपेहमाणे सम्वेहि पाहि निहाय दंडं। नो जीवियं नो मरणाभिकंखो, परिश्वएज्जा वलयाविमुक्के // 23 // // आहत्तहियं : तेरसमं अज्झयणं सम्मत्तं // 6 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 238-236 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org