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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 278 से 265 . 275 कंघी और चोटी बाँधने के लिए ऊन की बनी हुई जाली (सिंहलीपासक) ला दीजिए। और एक दर्पण (चेहरा देखने का शीशा) ला दो, दाँत साफ करने के लिए दत्तौन या दाँतमंजन भी घर में लाकर रखिये। 286. (प्राणवल्लभ !) सुपारी, पान, सुई-धागा, पेशाब करने के लिए पात्र (भाजन), सूप (छाजला), ऊखल एवं खार गालने के लिए बर्तन लाने का ध्यान रखना। 260 आयुष्मन् ! देवपूजन करने के लिए ताँबे का पात्र (चन्दालक) और करवा (पानी रखने का टंटीदार बर्तन) अथवा मदिरापान ला दीजिए। एक शौचालय भी मेरे लिए खोदकर बना दीजिए। अपने पुत्र के खेलने के लिए एक शरपात (धनुष) तथा श्रामणेर (श्रमणपुत्र-आपके पुत्र) की बैलगाड़ी खींचने के लिए एक तीन वर्ष का बैल ला दो। 261. शीलभ्रष्ट साधु से उसकी प्रेमिका कहती है--प्रियवर ! अपने राजकुमार-से पुत्र के खेलने के लिए मिट्टी की गुड़िया, झुनझुना, बाजा, और कपड़े की बनी हुई गोल गेंद ला दो। देखो, वर्षाऋतु निकट आ गई है, अत: वर्षा से बचने के लिए मकान (आवास) और भोजन (भक्त) का प्रबन्ध करना मत भूलना। 292. नये सूत से बनी हुई एक मॅचिया या कुर्सी, और इधर-उधर घूमने-फिरने के लिए एक जोड़ी पादुका (खड़ाऊ) भी ला दें। और देखिये, मेरे गर्भस्थ-पुत्र-दोहद की पूर्ति के लिए अमुक वस्तुएँ भी लाना है। इस प्रकार शीलभ्रष्ट पुरुष स्त्री के आज्ञापालक दास हो जाते हैं, अथवा स्त्रियाँ दास की तरह शीलभ्रष्ट पुरुषों पर आज्ञा चलाती हैं। 263. पुत्र उत्पत्र होना गार्हस्थ्य का फल है / (पुत्रोत्पत्ति होने पर उसको प्रेमिका रूठकर कहती हैं-) इस पुत्र को गोद में लो, अथवा इसे छोड़ दो, (मैं नहीं जानती)। इसके पश्चात् कई शीलभ्रष्ट साधक तो सन्तान के पालन-पोषण में इतने आसक्त हो जाते हैं कि फिर वे जिंदगी भर ऊंट की तरह गार्हस्थ्य-भार ढोते रहते हैं। 264. (वे पुत्रपोषणशील स्त्रीमोही पुरुष) रात को भी जागकर धाय की तरह बच्चे को गोद में चिपकाए रहते हैं / वे पुरुष मन में अत्यन्त लज्जाशील होते हुए भी (प्रेमिका का मन प्रसत्र रखने के लिए) धोवी की तरह स्त्री और बच्चे के वस्त्र तक धो डालते हैं। 265 इस प्रकार पूर्वकाल में बहुत से (शील भ्रष्ट) लोगों ने किया है। जो पुरुष भोगों के लिए सावध (पापयुक्त) कार्य में आसक्त हैं, वे पुरुष या तो दासों की तरह हैं, या वे मृग की.तरह भोले-भाले नौकर हैं, अथवा वे पशु के समान हैं , या फिर वे कुछ भी नहीं (नगण्य अधम व्यक्ति) हैं। .. ... ... विवेचन-स्त्री संग से भ्रष्ट साधकों को विडम्बना-सूत्रगाथा 278 से 265 तक में स्त्रियों के मोह में फंसकर काम-भोगों में अत्यासक्त साधकों की किस-किस प्रकार से इहलोक में विडम्बना एवं दुर्दशा होती है, और वे कितने नीचे उतर आते हैं, इसका विशद वर्णन शास्त्रकार ने किया है। ये विडम्बनायें क्यों और कितने प्रकार की ?--साधु तो निग्रंथ एवं वीतरागता के पथ पर चलने वाला तपस्वी एवं त्यागी होता है, उसके जीवन की सहसा विडम्बना होती नहीं, निःस्पृह एवं निरपेक्ष जीवन की दुर्दशा होने का कोई कारण नहीं किन्तु बशर्ते कि वह प्रतिक्षण जागरूक रहकर रागभाव और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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