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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 64 से 66 यह जगत् घोर अन्धकारमय था, बिलकुल अज्ञात, अविलक्षण, अतयं और अविज्ञय। मानो वह विलकुल सोया हुआ था। वह एक समुद्र के रूप में था। उसमें स्थावर-जंगम, देव, मानव, राक्षस, उरग और भुजंग आदि सब प्राणी नष्ट हो गये थे। केवल गड्ढा-सा बना हुआ था, जो पृथ्वी आदि महाभूतों से रहित था। मन से भी अचिन्त्य विभु सोये हुए तपस्या कर रहे थे। सोये हुए विभु की नाभि से एक कमल निकला, जो तरुण सूर्य बिम्ब के समान तेजस्वी, मनोरम और स्वर्णणिका वाला था। उस कमल में से दण्ड और यज्ञोपवीत से युक्त ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। जिन्होंने वही आठ जगन्माताएं बनायों-(१) दिति, (2) अदिति, (3) मनु, (4) विनता, (5) कद्र , (6) सुलसा, (7) सुरभि, और (E) इला / दिति ने दैत्यों को, अदिति ने देवों को, मनु ने मनुष्यों को, विनता ने सभी प्रकार के पक्षियों को, कद्र ने सभी प्रकार के सरीसृपों (सांपों) को, सुलसा ने नागजातीय प्राणियों को, सुरभि ने चौपाये जानवरों को और इला ने समस्त बीजों को उत्पन्न किया। ये और इस प्रकार के अनेक प्रसंग ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचना के मिलते हैं। इसीलिए शास्त्रकार (ग) प्रजाकामो वै प्रजापतिः / स तपोतप्यत / स तपस्तप्त्वा मिथुनमुत्पादयते / रयिं च प्राणं चेत्येतो मे बहधा प्रजाः करिष्ये // 4 // ---प्रश्नोपनिषत् प्रश्न 1, श्लो० 4 (घ).." सवै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीयमच्छत् / स हैतावनाप यथा स्त्रीपुमांसी संपरिष्वक्तो, स इममेवात्मानं दूधा पातयत्ततः पतिश्च पत्नी चामवताम् / तस्मादिदं मर्धवगलमिव स्व इतिह स्माहयाज्ञवल्क्य एतस्मादयमाकाश:, "ततो मनुष्या अजायन्त, ''गौरभवदृषभः, ततो गापोऽजायन्त, वडवेतराभवदश्व वृषः इतरो गर्दभीतरा गर्दभः "अजेतरभवबस्त"यदिदं किं च मिथुनमम पिपीलिकाभ्यस्तत सर्वमसृजत // 4 // सेऽवेदहं वाव सृष्टिरस्मि, अहं सर्वमसृक्षीति, ततः सृष्टिरभवत् / -बृहदारण्यक उपनिषद् ब्रा० 4 सू० 3-4 8 आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् / अप्रतय॑मविज्ञयं प्रसुप्तमिव सर्वतः // 1 // तस्मिन्ने कार्णवीभूते नष्टस्थावरजंगमे / नष्टामरनरे चैव प्रणष्टे राक्षसोरगे // 2 // केवलं गह्वरीभूते, महाभूतविजिते / अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र शयानस्तप्यते तपः // 3 // तत्र तस्य शयानस्य नाभेः पद्मविनिर्गतम् / तरुणार्क बिम्बनिभं हृद्य कांचनकणिकाम् // 4 // तस्मिन् पट्टे भगवान् दण्डयज्ञोपवीतसंयुक्तः / ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः // 5 // अदितिः सुर-सन्धानां दितिरसुराणां, मनुमनुष्याणाम् / विनता विहंगमानां माता विश्वप्रकाराणाम् // 6 // कद्र: सरीसपानां सुलसा माता च नागजातीनाम् / सुरभिश्चतुष्पदामामिला पुनः सर्वबीजानाम् // 7 // -वैदिक पुराण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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