________________ सूत्रकृतांग : षष्ठ अध्ययन-महावीर स्तव 356. से पप्णया अवखये सागरे वा, महोदधी वा वि अणंतपारे। ___ अणाइले वा अकसायि मुक्के, सक्के व देवाहिपती जुतीमं // 8 // 360. से बोरिएणं पडिपुष्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्वसेठे / सुरालए वा वि मुदागरे से, विरायतेऽणेगगुणोववेते // 6 // 354. भगवान महावीर खेदज्ञ (संसार के प्राणियों के दुःख के ज्ञाता) थे, कर्मों के उच्छेदन में कुशल थे, आशुप्रज्ञ (सदा सर्वत्र उपयोगवान् थे, अनन्तज्ञानी (सर्वज्ञ) और अनन्तदर्शी (सर्वदर्शी) थे। वे उत्कृष्ट यशस्वी (सुर, असुर और मानवों के यश से बढ़कर यश वाले) थे, जगत् के नयनपथ में स्थित थे, उनके धर्म (स्वभाव या श्रुत-चारित्र रूप धर्म) को तुम जानो (समझो) और (धर्मपालन में) उनकी धीरता को देखो। 355. ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशाओं में, जो त्रस और स्थावर प्राणी (रहते) हैं, उन्हें नित्य (जीवद्रव्य की दृष्टि से) और अनित्य (पर्याय-परिवर्तन की दृष्टि से) दोनों प्रकार का जानकर उन (केवलज्ञानी भगवान) ने दीपक या द्वीप के तुल्य सद्धर्म का सम्यक् कथन किया था। 356. वे (वीरप्रभू) सर्वदर्शी थे, चार ज्ञानों को पराजित करके केवलज्ञान सम्पन्न बने थे, निरामगन्धी (मूल-उत्तरगुणों से विशुद्ध चारित्न पालक) थे, (परीषहोपसर्गों के समय निष्कम्प रहने के कारण) धतिमान थ, स्थितात्मा (आत्मस्वरूप में उनकी आत्मा स्थित थी) थे, समस्त जगत् में वे (सकल पदार्थों के बेत्ता होने से) सर्वोत्तम विद्वान् थे (सचित्तादि रूप वाह्य और कर्मरूप आभ्यन्तर) ग्रन्थ से अतीत (रहित) थे, अभय (सात प्रकार के भयों से रहित) थे तथा अनायु (चारों गतियों के आयुष्यबन्ध से रहित) थे। 357. वे भूतिप्रज्ञ (अतिशय प्रवृद्ध या सर्वमंगलमयी अथवा विश्व-रक्षामयी प्रज्ञा से सम्पत्र), अनियताचारी (अप्रतिबद्धविहारी), ओघ (संसार-सागर) को पार करने वाले, धीर (विशालबुद्धि से सुशोभित) तथा अनन्तचक्षु (अनन्तज्ञेय पदार्थों को केवलज्ञान रूप नेत्र से जानते) थे। जैसे सूर्य सबसे अधिक तपता है, वैसे ही भगवान सबसे अधिक उत्कृष्ट तप करते थे, अथवा ज्ञानभानु से सर्वाधिक देदीप्यमान थे। वैरोचनेन्द्र (प्रज्वलित अग्नि) जैसे अन्धकार मिटाकर प्रकाश करता है, वैसे ही भगवान अज्ञानान्धकार मिटाकर पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रकाशित करते थे। 358. आशुप्रज्ञ काश्यप गोत्रीय, मुनिश्री वर्धमान स्वामी ऋषभदेव आदि जिनवरों के इस अनुत्तर (सबसे प्रधान) धर्म के नेता है / जैसे स्वर्ग (देव) लोक में इन्द्र हजारों देवो में महाप्रभावशाली, नेता एवं (रूप, बल, वर्ण आदि में सबसे) विशिष्ट (प्रधान) है, इसी तरह भगवान भी सबसे अधिक प्रभावशाली, सबके नेता और सबसे विशिष्ट हैं। 356. वह (भगवान) समुद्र के समान प्रज्ञा से अक्षय हैं, अथवा वह स्वयम्भूरमण महासागर के समान प्रज्ञा से अनन्तपार (अपरम्पार) हैं, जैसे समुद्रजल निर्मल (कलुषतारहित) है, वैसे ही भगवान का ज्ञान भी (ज्ञानावरणीय कर्ममल से सर्वथा रहित होने से) निर्मल है, तथा वह कषायों से सर्वथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International