________________ गापा 354 से 36. 121 र हित, एवं धाति कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हैं, (इसी तरह) भगवान इन्द्र के समान देवाधिपति है तथा द्युतिमान (तेजस्वी) हैं। 360. वह (भगवान महावीर) वीर्य से परिपूर्णवीर्य हैं. पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ सुदर्शन (सुमेरु) पर्वत के समान, वीर्य से तथा अन्य गुणों से सर्वश्रेष्ठ हैं। जैसे देवालय (स्वर्ग) वहाँ के निवासियों को अनेक (प्रशस्त रूप-रस-गन्धस्पर्श प्रभादादि) गुणों से युक्त होने से मोदजनक है, वैसे ही अनेक गुणों से युक्त भगवान भी (पास में आने वाले के लिए) प्रमोदजनक होकर विराजमान हैं। विवेचन-अनेक गुणों से विभूषित्त भगवान महावीर की महिमा-प्रस्तुत 7 सूत्रगाथाओं (354 से 360 तक) में श्री सुधर्मास्वामी द्वारा पूर्वजिज्ञासा के समाधान के रूप में भगवान महावीर के सर्वोत्तम विशिष्ट गणों का उत्कीर्तन किया गया है। वे विशिष्ट गण क्रमशः इस प्रकार प्रतिपादित हैं--(१) खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ, (2) कुशल (3) आशुप्रज्ञ, (4) अनन्तज्ञानी, (5) अनन्तदर्शी, (6) उत्कृष्ट यशस्वी, (7) विश्वनयनपथ में स्थित, (8) प्रशंसनीय धर्म तथा धैर्यवान, (10) उन्ने द्वीप या दीप के तुल्य धर्म का कथन लोक के समस्त बस-स्थावर जीवों को नित्य-अनित्य जानकर किया, (11) सर्वदर्शी, (12) केवलज्ञानसम्पन्न, (13) निर्दोष चारित्रपालक (निरामगन्धी), (14) धृतिमान, (15) स्थितात्मा, (16) जगत् के सर्वोत्तम विद्वान, (17) बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थों से अतीत, (18) अभय, (16) अनायु (आयुष्यबन्ध रहित), (20) भूतिप्रज्ञ, (21) अप्रतिबद्ध विचरणशील, (22) संसार सागर पारंगत, (23) धीर, (24) अनन्तचक्षु (25) सूर्यवत् सर्वाधिक तपनशील, (26) प्रज्ज्वलित अग्निवत् अज्ञान तिमिर-निवारक, एवं पदार्थ स्वरूप प्रकाशक, (27) आशुप्रज्ञमुनि, (28) पूर्व जन प्ररूपित अनुत्तरधर्म के नेता, (26) स्वर्ग में हजारों देवो में महाप्रभावशाली, नेता एव विशिष्ट इन्द्र के समान सर्वाधिक प्रभावशाली, नेता एवं विशिष्ट, (30) समुद्रवत् प्रज्ञा से अक्षय, (31) स्वयम्भरमण-महोदधि के समान गम्भीरज्ञानीय प्रज्ञा से अनन्तपार, (32) समुद्र के निर्मल जलवत् सर्वथा निर्मल ज्ञान-सम्पन्न, (33) अकषायी, (34) धाति कर्मबन्धनों से मुक्त (35) इन्द्र के समान देवाधिपति, (36) तेजस्वी, (37) परिपूर्णवीर्य (38) पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ सुमेरुवत् गुणों में सर्वश्रेष्ठ, (39) अनेक प्रशस्त गुणों से युक्त होने से स्वर्गवत् प्रमोदजनक / कठिन शब्दों को ध्याख्या- खेय, ए= इसके तीन अर्थ है- (1) खेदज्ञ= संसारी प्राणियों के कर्मविपाकज दुःखों के ज्ञाता, (2) यथार्थ आत्मस्वरूप परिज्ञान होने से आत्मज (क्षेत्रज्ञ) तथा (3) क्षेत्र-आकाश (लोकालोक रूप) के स्वरूप परिज्ञाता। 'जाणाहि धम्मं च धिई च पेहा=(१) भगवान के अनुत्तर धर्म को जानो और धर्मपालन में पति को देखो, (2) भगवान् का जैसा धर्म, जैसी धृति या प्रेक्षा है, उसे तुम यथार्थरूप में जान लो। (3) अथवा यदि तुम उनके धर्म, और धृति को जानते हो तो हमें बतलाओ। दोवेव धम्म=(१) प्राणियों को पदार्थ का स्वरूप प्रकाशित (प्रकट) करने से दीप के समान, (2) अथवा संसार समुद्र में पड़े हुए प्राणियों को सदुपदेश देने से उनके लिए आश्वासनदायक या आश्रयदाता द्वीप के समान धर्म का / 5 सूत्रकृतांग (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) 50 63-64 का सारांश 6 तलना करें-भगवद्गीता के क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग नामक 13 वें अध्याय में प्रतिपादित क्षेत्रज्ञ' के वर्णन से / (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 143 से 146 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पु० 63-64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org