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________________ 322 सूत्रकृतांग-पाठ अध्ययन-महावीर स्तव पर्वतश्रेष्ठ सुमेरु के समान गुणों में सर्वश्रेष्ठ महावीर-- 361. सयं सहरसाण उ जोयणाणं, तिगंडे से पंडगवेजयंते / से जोरणे णदणदते सहस्से, उड्ढरिसते हे सहरसमेगं // 10 // 362. पुढे णभे चिठति भूमिए ठिते, ज सूरिया अणुपरियट्टयंति। से हेमवणे बहुणंदणे य, जंसी रंति वेदयंती महिंदा // 11 // 363. से पवते सहमहापगासे, विराय ती कंचणमट्ठवण्णे / अत्तरे गिरिसु य पत्वदुग्गे, गिरीवरे से जालते व भोमे // 12 // 364. महीड मज्झम्मि टिते गिदे, पण्णायते सरिय सुद्धलेस्से। एवं सिरीए उ स भूरिवणे, मणोरमे जोयति अच्चिमाली // 13 // 365. सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स, पवुच्चती महतो पवतस्स। एतोवमे समणे नायपुत्ते, जाती-जसो-दसण-णाणसोले // 14 // 361. वह सुमेरुपर्वत सौ हजार एक लाख) योजन ऊँचा है। उसके तीन कण्ड (विभाग) हैं। उस पर सर्वोच्च पण्डकवन पताका की तरह सुशोभित है। वह निन्यानवे हजार योजन ऊँचा उठा है, और एक हजार योजन नीचे (भूमि में) गड़ा है। 362. वह सुमेरुपर्वत आकाश को छुता हुआ पृथ्वी पर स्थित है / जिसकी सूर्यगण परिक्रमा करते हैं। वह सुनहरे रंग का है, और अनेक नन्दनवनों से युक्त (या बहुत आनन्ददायक) है। उस पर महेन्द्रगण आनन्द अनुभव करते हैं / 363. वह पर्वत (सुमेरु, मन्दर, मेरु, सुदर्शन, सुरगिरि आदि) अनेक नामों से महाप्रसिद्ध है, तथा सोने की तरह चिकने शुद्ध वर्ण से 'सुशोभित है। वह मेखला आदि या उपपर्वतों के कारण सभी पर्वतों में दुर्गम है / वह गिरिवर मणियों और औषधियों से प्रकाशित भूप्रदेश की तरह प्रकाशित रहता है / 364. वह पर्वतराज पृथ्वी के मध्य में स्थित है तथा सूर्य के समान शुद्ध तेज वाला प्रतीत होता है। इसी तरह वह अपनी शोभा से अनेक वर्ण वाला और मनोरम है, तथा सूर्य की तरह (अपने तेज से दसों दिशाओं को) प्रकाशित करता है। 365. महान् पर्वत सुदर्शन गिरि का यश (पूर्वोक्त प्रकार से) बताया जाता है, ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर को भी इसी पर्वत से उपमा दी जाती है। (जैसे सुमेरुपर्वत अपने गुणों के कारण समस्त पर्वतों में श्रेष्ठ हैं, इसी तरह) भगवान् भी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं। विवेचन-पर्वतश्रेष्ठ सुमेह के समान गुणों में सर्वश्रेष्ठ महावीर --प्रस्तुत पांच सूत्रों में भगवान् को पर्वतराज सुमेरु से उपमा दी गई है। सुमेरुपर्वत की उपमा भगवान् के साथ इस प्रकार घटित होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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