________________ ( 35 ) प्रस्तुत संस्करण एवं सम्पादन : सूत्रकृतांगसूत्र, जिसमें कि भगवान महावीर की दार्शनिक विचारधारा उपनिबद्ध है, जैन आगमों में इसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है तथा भारतीय दर्शनों में भी इसका महान गौरव रहा है। प्राचीन भारतीय दर्शन की एक भी धारा उस प्रकार की नहीं रही जिसका उल्लेख सूत्रकृतांग सूत्र में न हुआ हो। यह बात अवश्य रही है कि कही-कहीं पर संकेत मात्र कर दिया है और कहीं-कहीं नाम लेकर स्पष्ट उल्लेख किया गया है / उपनिषतत्कालीन तत्त्ववाद का वेदान्त और प्राचीन सांख्य-दर्शन, क्षणिकवादी बौद्धों का क्षणिकवाद तथा पंचभूतवादियों का भूतवाद इन सभी का समावेश सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कन्ध में हो गया है। प्रस्तुत शास्त्र के व्याख्याकार नियुक्तिकार भद्रबाह ने तथा चूर्णिकार ने अपनी चूणि में कुछ गम्भीर स्थलों की सुन्दर व्याख्या की है / लेकिन संस्कृत टीकाकार आचार्य शीलांक ने इस सूत्र की अपनी संस्कृत टीका में भारतीय दार्शनिक विचारधारा का विस्तार के साथ वर्णन किया है। जो विचार बीज रूप में उपलब्ध थे उनका एक विशाल वृक्ष उन्होंने अपनी टीका में रूपायित किया है। मैंने आनी भूमिका के प्रारम्भ में ही भारतीय-दर्शन की विभिन्न मान्यताओं का संक्षेप में स्पष्ट वर्णन कर दिया है, इस भूमिका के आधार पर पाठक इस शास्त्र के गम्भीर भावों को आसानी से समझ सकेंगे। स्व० पूज्य जवाहरलाल जी म० की देख-रेख में सूत्रकृतांगसूत्र का चार भागों में सम्पादन हुआ है जो अत्यन्त ही महत्वपूर्ण एवं सुन्दर सम्पादन है। पूज्य घासीलाल जी म. ने भी सूत्रकृतांग सूत्र की संस्कृत टीका बहुत ही विस्तार से प्रस्तुत की है, जिसमें उसका हिन्दी अर्थ तथा गुजराती अर्थ भी उपनिबद्ध कर दिया गया है। परन्तु श्रमण संघ के युवाचार्य प्रकाण्ड पंडित श्रद्धेय मधुकर जी म० के सान्निध्य में सूत्रकृतांग का जो सुन्दर लेखन-सम्पादन हुआ है उसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। प्रस्तुत पुस्तक में मूल पाठ, उसका भावार्थ फिर उसका विवेचन और साथ में विभिन्न ग्रन्थों से टिप्पण दे दिये हैं जिससे इसकी उपयोगिता बहुत बढ़ गई है। यद्यपि सामान्य पाठक के लिये टिप्पणों का विशेष मूल्य नहीं है, वह प्रायः टिप्पण देखता भी नहीं परन्तु विद्वान् अध्येताओं के लिए टिप्पण बहुत ही उपयोगी हैं। इस संस्करण के सम्पादक की बहुश्रु तता तब अभिव्यक्त हो जाती है जब सामान्य पाठक भी संस्कृत प्राकृत टिप्पणों का हिन्दी भावार्थ समझ लेता है, यह कार्य श्रम-साध्य है, पर उपयोगिता की दृष्टि से बहुत अच्छा रहा। पंडितरत्न श्री मधुकर जी म. संस्कृत, प्राकृत, पाली, और अपभ्रंश भाषा के प्रौढ़ विद्वान् हैं। उनकी व्यापक शास्त्रीय दृष्टि तथा निर्देशन-कुशलता इस शास्त्र के प्रत्येक पृष्ठ पर अभिव्यक्त हो रही है। उनकी इस सफलता के लिये मैं धन्यवाद * देता हूँ, तथा आशा करता हूँ कि भविष्य में अन्य आगमों का भी इसी प्रकार सम्पादन कार्य चालू रखेंगे। उनकी यह श्रत-सेवा जैन इतिहास में अजर-अमर होकर रहेगी। संस्कृत और प्राकृत के विश्रत विद्वान् श्रीचन्द जी सुराना ने प्रस्तुत शास्त्र का जिस योग्यता के साथ अनुवाद, विवेचन एवं सम्पादन किया है वह अत्यन्त स्तुत्य है / विभिन्न ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन और प्रकाशन वे वर्षों से करते चले आ रहे हैं। उन्होंने श्रुत देवता की अपनी लेखनी से जो सेवा की ही, समाज उसे कभी भुला नहीं सकेगा। उन्होंने पहले आचारांग सूत्र जैसे गहन व महत्वपूर्ण सूत्र का, सम्पादन विवेचन किया है, और अब सूत्रकृतांग का। सूत्रकृतांग सत्र जैसे दार्शनिक आगम की व्याख्या एवं सम्पादन करना साधारण बात नहीं है। वे अपने इस कार्य में पूर्णतः सफल हुए हैं। समाज आशा कर सकता है कि वे भविष्य में इसी प्रकार की श्रत साधना करते रहेंगे / -विजय मुनि शास्त्री 'जैन भवन' लोहामण्डी, आमरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org