________________ ( 34 ) टीकाएं और टीकाकार : जन आगमों की संस्कृत व्याख्याओं का भी आगमिक साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है / संस्कृत के प्रभाव की विशेष वृद्धि होते देख जैन आचार्यों ने भी अपने प्राचीनतम साहित्य आगम-ग्रन्थों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखना प्रारम्भ किया। इन टीकाओं में प्राचीन नियुक्तियों, भाष्यों एवं चूणियों की सामग्री का तो उपयोग हुआ ही, साथ ही साथ टीकाकारों ने नये-नये हेतुओं एवं तर्को द्वारा उस सामग्री को पुष्ट भी किया। आगमिक साहित्य पर प्राचीनतम संस्कृत टीका आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यक भाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति है। यह वृत्ति आचार्य जिनभद्र गणि अपने जीवन काल में पूर्ण न कर सके / इस अपूर्ण कार्य को कोट्यार्य ने (जो कि कोट्याचार्य से भिन्न है) पूर्ण किया। इस दृष्टि से आचार्य जिनभद्र प्राचीनतम आगमिक टीकाकार हैं / भाष्य, चूणि और टीका तीनों प्रकार के व्याख्यात्मक साहित्य में इनका योगदान है। भाष्यकार के रूप में तो इनकी प्रसिद्धि है ही। अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर इनकी एक चणि भी है / टीका के रूप में इनकी लिखी हुई विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति है हो / टीकाकारों में हरिभद्रसूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल शान्तिसूरि, अभयदेवमूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। शोलांकाचार्यकृत टीकाएँ : आचार्य शीलांक के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने प्रथम नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी थीं / वर्तमान में इनकी केवल दो टीकाएँ उपलब्ध हैं / आचारांग विवरण और सूत्रकृतांग बिवरण। इन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) आदि पर भी टीकाएँ लिखी अवश्य होंगी, जैसा कि अभयदेवसूरि कृत व्याख्याप्रज्ञप्ति से फलित होता है। आचार्य शीलांक, जिन्हें शीलाचार्य एवं तत्वादिस्य भी कहा जाता है विक्रम की नवीं दसवीं शती में विद्यमान थे / आचासंग विवरण: यह विवरण आचारांग के मूलपाठ एवं उसकी नियुक्ति पर है / विवरण शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है / इसमें प्रत्येक सम्बद्ध विषय का सुविस्तृत व्याख्यान है। यत्र-तत्र प्राकृत एवं संस्कृत उद्धरण भी हैं। प्रारम्भ में आचार्य ने गंधहस्तिकृत शस्त्र परिज्ञा-विवरण का उल्लेख किया है / एवं उसे कठिन बताते हुए आचारांग पर सुबोध विवरण लिखने का प्रयत्ल किया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के षष्ठ अध्ययन की व्याख्या के अन्त में विवरणकार ने बताया है कि महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन का व्यवच्छेद हो जाने के कारण उसका अतिलघन करके अष्टम अध्ययन का व्याख्यान प्रारम्भ किया जाता है / अष्टम अध्ययन के षष्ठ उद्देशक के विवरण में ग्राम, नकर (नगर), खेट, कर्बट, महम्ब, पत्तन, द्रोण, आकर, आश्रम, सन्निवेष, निगम, राजधानी आदि का स्वरूप बताया गया है। फानन द्वीप आदि को जल पत्तन एवं मुख मथुरा आदि को स्थल पत्तन कहा गया है / मरकच्छ, ताम्रलिप्ति, आदि द्रोणमुख अर्थात् जल एवं स्थल के आगमन के केन्द्र हैं / प्रस्तुत विवरण निवृत्ति कुलीन शीलाचार्य ने गुप्त संवत् 772 की भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन वाहरिसाधु को सहायता से गभूता में पूर्ण किया / विवरण का ग्रन्थ मान 12000 श्लोक प्रमाण है / सूत्रकृतांग विवरण : यह विवरण सूत्रकृतांग के मूलपाठ एवं उसकी नियुक्ति पर है। विवरण सुबोध है / दार्शनिक दृष्टि की प्रमुखता होते हुए भी विवेचन में क्लिष्टता नहीं आने पाई है। यत्र-तत्र पाठान्तर भी उद्धृत किये गये हैं। विवरण में अनेक श्लोक एवं गाथाएँ उद्धृत की गई हैं किन्तु कहीं पर भी किसी ग्रन्थ अथवा ग्रन्थकार के नाम का कोई उल्लेखनहीं है। प्रस्तूत टीका का ग्रन्थ मान 12850 श्लोक प्रमाण है। यह टीका टीकाचार्य ने वाहरिमणि की सहायता से पूरी की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org