________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 57 से 56 अशुद्ध होने से कर्मबन्ध होता ही है। इसलिए चतुर्विध कर्म-उपचय (बन्ध) को प्राप्त नहीं होते, यह कहना भी यथार्थ नहीं है। इसीलिए शास्त्रकार ने कर्मोपचय निषेधवादी बौद्धों पर दो आक्षेप लगाये हैं-(१) कर्म चिन्ता से रहित हैं, (2) संयम और संवर के विचार से किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। कठिन शब्दों की व्याख्या-संसारपरिवडणं-संसार-जन्म-मरण रूप संसार की वृद्धि करने वाला, पाठान्तर है-दुक्खक्खंधविवक्षण-दुःख-स्कन्ध" यानी असातावेदनीय के उदय रूप दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाला / जाणं कारण अणाउट्टी-जानता हुआ भी शरीर से हिंसा नहीं करने वाला। जानता हुआ यदि काया से प्राणी को, प्राणी के अंगों को काटता हो, अथवा चूर्णिकार के अनुसार जो 6 बातों से अभिज्ञ बुद्ध-तत्त्वज्ञ है, वह हिंसा करता हुआ भी पापकर्म का बन्ध नहीं करता अथवा स्वप्न में किसी प्राणी का घात करता हुआ भी काया से छेदनादि हिंसा नहीं करता / अबुहो-अनजान में, नहीं जानता हुआ। पुट्ठो संवेदेति परं-अविज्ञोपचित आदि चार प्रकार के कर्मों से कर्ता जरा-सा स्पृष्ट होता है, वह केवल स्पर्शमात्र का अनुभव करता है, क्योंकि उसका विपाक (फल) अधिक नहीं होता / जैसे-दीवार पर फेंकी हुई बालू की मुट्ठी स्पर्श के बाद ही झड़ जाती है। 'अवियत्तं खु सावज्ज'-उक्त चतुर्विध कर्म अव्यक्त-अस्पष्ट हैं, क्योंकि विपाक का स्पष्ट अनुभव नहीं इसलिए परिज्ञोपचितादि कर्म अव्यक्त रूप से सावध हैं। आयाणापापकर्मों के आदान-ग्रहण या कर्मबन्ध के कारण / अर्थात् जिन दुष्ट अध्यवसायों से पापकर्म का उपचय किया जाता है, वे आदान कहलाते हैं। भावविसोहीए-राग-द्वोष रहित बुद्धि से / चित्तं तेसि न विज्जतीप्राणिवध के परिणाम होने पर उनका चित्त शुद्ध नहीं रहता / अणवज्ज अतहं तेसि-केवल मन से द्वष करने पर भी उनके पाप कर्मबन्धन या कर्मोपचय नहीं होता, यह असत्य है / परवादि-निरसन 57. इच्चेयाहि दिट्ठीहि सातागारवणिस्सिता। सरणं ति मण्णमाणा सेवंती पावगं जणा // 30 // 58. जहा आसाविणि णावं जातिअंधो दुरूहिया। इच्छेज्जा पारमागंतु अंतरा य विसीयति // 31 // 56. एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। ____ संसारपारकंखी ते संसारं अणुपरियति // 32 // ति बेमि / 57. (अब तक बताई हुई) इन (पूर्वोक्त) दृष्टियों को लेकर सुखोपभोग एवं बड़प्पन (मान-बड़ाई) में आसक्त (विभिन्न दर्शन वाले) अपने-अपने दर्शन को अपना शरण (रक्षक) मानते हुए पाप का सेवन करते हैं। 30 चूणिकार के अनुसार-कर्मसमूह, वृत्तिकार के अनुसार-दुःख परम्परा बौद्ध सम्मत चार आर्य सत्यों में से दूसरा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org