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________________ 60 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 'मणसाजे"संवुडचारिणो।' इसका आशय यह है कि जो पुरुष किसी भी निमित्त से किसी प्राणी पर द्वेष या हिंसा में नहीं जाता, वह विशुद्ध है, इसलिए उन व्यक्तियों को पाप कर्म का बन्ध (उपचय) नहीं होता, यह कहना असत्य है, सिद्धान्त और युक्ति से विरुद्ध है। जानकर हिंसा करने से पहले राग-द्वेष पूर्ण भाव न आएं, यह सम्भव नहीं है / 26 भाव हिंसा तभी होती है, जब मन में जरा भी राग, द्वष, कषाय आदि के भाव आते हैं। वस्तुतः कर्म के उपचय करने में मन ही तो प्रधान कारण है, जिसे बौद्ध-ग्रन्थ धम्मपद में भी माना है / 27 उन्हीं के धर्म ग्रन्थ में बताया है कि 'राग-द्वेषादि क्लेशों से वासित चित्त ही संसार (कर्म बन्धन रूप) है, और वही रागादि क्लेशों से मुक्त चित्त ही संसार का अन्त-मोक्ष कहलाता है। बौद्धों के द्वारा दृष्टान्त देकर यह सिद्ध करना कि विपत्ति के समय पिता द्वारा पूत्र का वध किया जाना और उसे मारकर स्वयं खा जाना और मेधावी भिक्षु द्वारा उक्त मांसाशन करना पापकर्म का कारण नहीं है, बिलकुल असंगत है। राग-द्वेष से क्लिष्ट चित्त हुए बिना मारने का परिणाम नहीं हो सकता, 'मैं पुत्र को मारता हूँ' ऐसे चित्त परिणाम को असंक्लिष्ट कौन मान सकता है ?28 और उन्होंने भी तो कृत-कारित और अनुमोदित तीनों प्रकार से हिंसादि कार्य को पापकर्मबन्ध का आदान कारण माना है। ईर्यापथ में भी विना उपयोग के गमनागमन करना चित्त की संक्लिष्टता है, उससे कर्म बन्धन होता ही है / हाँ, कोई साधक प्रमाद रहित होकर सावधानी से उपयोग पूर्वक चर्या करता है, किसी जीव को मारने की मन में भावना नहीं है, तब तो वहाँ उसे जैन सिद्धान्तानुसार पापकर्म का बन्ध न ही होता। परन्तु सर्वसामान्य व्यक्ति, जो बिना उपयोग के प्रमादपूर्वक चलता है, उसमें चित्त संक्लिष्ट होता ही है, और वह व्यक्ति पापकर्म बन्ध से बच नहीं सकता। इसी प्रकार चित्त संक्लिष्ट होने पर ही स्वप्न में किसी को मारने का उपक्रम होता है / अतः स्वप्नान्तिक कर्म में भी चित्त 26 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक=३६ (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 27 (क) मनो पुब्वंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया। मनसा चे षछैन भासति वा करोति वा // 1 // -धम्मपद पढमो यमकवग्गो 1 (ख) चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् / तदेव तैविनिर्मुक्त भवान्त इति कथ्यते // -सूत्रकृतांग भाषानुवाद पृ० 126 28 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-३७ से 40 तक (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 6 26 जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए / जयं भुजतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ / / -दशव० अ० 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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