________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 693 ] [ 49 ति वा इसी ति वा मणी ति वा कती ति वा विदू ति वा भिक्खू ति वा लू हे ति वा तोरट्ठी ति वा चरणकरणपारविदु त्ति बेमि। ॥पोंडरीयं : पढमं अज्झयणं सम्मत्तं // ६६३---इस प्रकार का भिक्षु कर्म (कर्म के स्वरूप, विपाक एवं उपादान) का परिज्ञाता, संग (बाह्य-प्राभ्यन्तर-सम्बन्ध) का परिज्ञाता, तथा (निःसार) गृहवास का परिज्ञाता (मर्मज्ञ) हो जाता है। वह (इन्द्रिय और मन के विषयों का उपशमन करने से) उपशान्त, (पंचसमितियों से युक्त होने से) समित, (हित से या ज्ञानादि से युक्त होने से--) सहित एवं सदैव यतनाशील अथवा संयम में प्रयत्नशील होता है। उस साधक को इस प्रकार (आगे कहे जाने वाले विशेषणों में से किसी भी एक विशेषणयुक्त शब्दों से) कहा जा सकता है, जैसे कि-वह श्रमण है, या माहन (प्राणियों का हनन मत करो, ऐसा उपदेश करने वाला या ब्रह्मचर्यनिष्ठ होने से ब्राह्मण) है, अथवा वह क्षान्त (क्षमाशील) है, या दान्त (इन्द्रियमनोवशीकी) है, अथवा गुप्त (तीन गुप्तियों से गुप्त) है, अथवा मुक्त (मुक्तवत्) है, तथा महर्षि (विशिष्ट तपश्चरणयुक्त) है, अथवा मुनि (जगत् की त्रिकालावस्था पर मनन करने वाला) है, अथवा कृती (पुण्यवान-सकृती या परमार्थपण्डित), तथा विद्वान / अध्यात्मविद्यावान) है, अथवा भिक्षु (निरवद्यभिक्षाजीवी) है, या वह रूक्ष (अन्ताहारी-प्रान्ताहारी) है, अथवा तीरार्थी (मोक्षार्थी) है, अथवा चरण-करण (मूल-उत्तर गुणों) के रहस्य का पारगामी है। -ऐसा मैं कहता हूं। _ विवेचन--पंचमपुरुष : अनेकगुणविशिष्ट भिक्ष-स्वरूप और विश्लेषण--प्रस्तुत 15 सूत्रों (सू. सं. 676 से 663 तक) में उत्तम पुण्डरीक कमल को प्राप्त करने के योग्य निर्ग्रन्थ भिक्षु की विशेषताओं एवं अर्हताओं का सर्वांगीण विश्लेषण किया गया है / उक्त भिक्षु की अर्हताएं संक्षेप में इस प्रकार हैं--- (1) वह भिक्ष अपने आप को कसौटी बना कर षटकायिक जीवों के हिसाजनित दुःख और भय का अनुभव करता है, और किसी भी प्राणी की, किसी भी प्रकार से हिंसा नहीं करता, क्योंकि अतीत-अनागत और वर्तमान में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, होंगे या हैं, उन सब महापुरुषों ने सर्वप्राणि-अहिंसारूप शाश्वत धर्म का प्रतिपादन किया है। (2) प्राणातिपात की तरह वह भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से भी सर्वथा विरत हो जाता है। (3) इस धर्म (अहिंसादि रूप) की रक्षा के लिए भिक्ष, शोभा की दृष्टि से दन्तप्रक्षालन, अंजन, वमन-विरेचन, धूप, और धूम्रपान नहीं करता। (4) वह भिक्षु सावधक्रियाविरत, अहिंसक, अकषायी, उपशान्त एवं परिनिर्वृत्त होता है। (5) वह अपने समाराधित ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, नियम, संयम एवं ब्रह्मचर्यरूप धर्म से इहलौकिक या पारलौकिक किसी भी प्रकार की फलाकांक्षा नहीं करता; न ही काम-भोगों, सिद्धियों की प्राप्ति को या दुःख एवं अशुभ की अप्राप्ति की वाञ्छा करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org