________________ 48 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध हे धम्मं प्राइक्खेज्जा, णो अन्नेसि विरूव-रूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेजा, अगिलाए धम्ममाइक्खिज्जा, गण्णस्थ कम्मणिज्जरट्टयाए धम्मं प्राइवखेज्जा / ६६०-धर्मोपदेश करता हुआ साधु अन्न (विशिष्ट सरस-स्वादिष्ट आहार) के लिए धर्मकथा न करे, पान (विशिष्ट पेय पदार्थ) के लिए धर्मव्याख्यान न करे, तथा सुन्दर वस्त्र-प्राप्ति के लिए धर्मोपदेश न करे, न ही सुन्दर आवासस्थान (मकान) के लिए धर्मकथन करे, न विशिष्ट शयनीय पदार्थों की प्राप्ति (शय्या) के लिए धर्मोपदेश करे, तथा दूसरे विविध प्रकार के काम-भोगों (भोग्यपदार्थों) की प्राप्ति के लिए धर्म कथा न करे / प्रसन्नता (अग्लानभाव) से धर्मोपदेश करे। कर्मों की निर्जरा (ग्रात्मशुद्धि) के उद्देश्य के सिवाय अन्य किसी भी फलाकांक्षा से धर्मोपदेश न करे / ६६१--इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्म उढाय वोरा अस्सि धम्मे समुट्ठिता, जे तस्स भिक्खुस्त अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्म सम्म उढाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुट्टिता, ते एवं सम्बोवगता, ते एवं सम्बोवरता, ते एवं सव्वोवसंता, ते एवं सव्वत्ताए परिनिव्वुडे त्ति बेमि। ६९१-इस जगत् में उस (पूर्वोक्तगुण विशिष्ट) भिक्षु से धर्म को सुन कर, उस पर विचार करके (मनिधर्म का प्राचरण करने के लिए) सम्यक रूप से उत्थित (उद्यत) वीर पुरुष ही इस पाहत धर्म में उपस्थित (दीक्षित) होते हैं / जो वीर साधक उस भिक्षु से (पूर्वोक्त) धर्म को सुन-समझ कर सम्यक् प्रकार से मुनिधर्म का आचरण करने के लिए उद्यत होते हुए इस (आहत) धर्म में दीक्षित होते हैं, वे सर्वोपगत हो जाते हैं (सम्यग्दर्शनादि समस्त मोक्षकारणों के निकट पहुंच जाते हैं), वे सर्वोपरत (समस्त पाप स्थानों से उपरत) हो जाते हैं, वे सर्वोपशान्त (कषायविजेता होने से सर्वथा उपशान्त) हो जाते हैं. एवं वे समस्त कर्मक्षय करके परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। यह मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ। ६६२--एवं से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविद् नियागपडिवण्णे, से जहेयं बुतियं, अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरोयं अदुवा अपत्ते पउमवरपोडरीयं / ६६२---इस प्रकार (पूर्वोक्तविशेषण युक्त) वह भिक्षु धर्मार्थी (धर्म से ही प्रयोजन रखने वाला) धर्म का ज्ञाता और नियाग (संयम या विमोक्ष) को प्राप्त होता है / ऐसा भिक्षु, जैसा कि (इस अध्ययन में) पहले कहा गया था, पूर्वोक्त पुरुषों में से पांचवाँ पुरुष है। वह (भिक्षु) श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान निर्वाण को प्राप्त कर सके अथवा उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को (मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्याय ज्ञान तक ही प्राप्त होने से) प्राप्त न कर सके, (वही सर्वश्रेष्ठ पुरुष है।) ६६३-एवं से भिक्ख परिणातकम्मे परिणायसंगे परिणागिहवासे उवसंते समिते सहिए सदा जते / सेयं वयणिज्जे तंजहा-समणे ति वा माहणे ति वा खते ति वा दंते ति वा गुत्ते ति वा मुत्ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org