________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 63 से 66 नहीं है। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि जिससे विभिन्न कृतवादी अपने-अपने मान्य आराध्य द्वारा लोक का कर्तृत्व सिद्ध कर सकें। ईश्वर' कर्तृत्ववादियों ने लोक के विभिन्न पदार्थों को कार्य बताकर कुम्हार के घट रूप कार्य के कर्ता की तरह ईश्वर को जगत् कर्तृत्व रूप कार्य का कर्ता सिद्ध करने का प्रयास किया है, परन्तु लोक द्रव्य रूप से नित्य होने के कारण कार्य है ही नहीं। पर्याय रूप से अनित्य है, परकार्य का कर्ता के साथ कोई अविनाभाव नहीं है। दूसरा प्रश्न कृतवादियों के समक्ष यह उपस्थित होता है कि उनका सृष्टि कर्ता इस सृष्टि को स्वयं उत्पन्न होकर बनाता है या उत्पन्न हुए बिना बनाता है ? स्वयं उत्पन्न हुए बिना तो दूसरे को कैसे बना सकता है ? यदि उत्पन्न होकर बनाता है तो स्वयं उत्पन्न होता है या दूसरे के द्वारा उत्पन्न किया है ? यदि माता-पिता के बिना स्वयमेव उत्पन्न होता है, तब तो इस जगत् को भी स्वयं उत्पन्न क्यों नहीं मानते ? यदि दूसरे से उत्पन्न होकर लोक को बनाता है, तो यह बतायें कि उस दूसरे को कौन उत्पन्न करता है? वह भी तीसरे से उत्पन्न होगा, और तीसरा चौथे से उत्पन्न मानना पड़ेगा। इस प्रकार उत्पत्ति का प्रश्न खड़ा रहने पर अनवस्था दोष आ जायेगा। इसका कृतवादियों के पास कोई उत्तर नहीं है। तीसरा प्रश्न यह खड़ा होता है कि वह सृष्टिकर्ता नित्य है या अनित्य ? नित्य तो एक साथ या क्रमशः भी अर्थक्रिया कर नहीं सकता, क्योंकि वह तो अपनी जगह से हिल भी नहीं सकता और न उसका स्वभाव बदल सकता है। यदि वह अनित्य है तो उत्पत्ति के पश्चात् स्वयं विनाशी होने के कारण नष्ट हो सकता है, अतः उसका कोई भरोसा नहीं है कि वह जगत् को बनायेगा, क्योंकि नाशवान होने से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो, वह दूसरे की उत्पत्ति के लिए व्यापार चिन्ता क्या कर सकता है ? अब प्रश्न यह है कि वह सृष्टि कर्ता मूर्त है या अमूर्त ? यदि वह अमूर्त है तो आकाश की तरह वह भी अकर्ता है, यदि मूर्तिमान है, तब कार्य करने के लिए उसे साधारण पुरुष की तरह उपकरणों की अपेक्षा रहेगी। उपकरण बनायेगा तो उनके लिए दूसरे उपकरण चाहिए। वे उपकरण कहाँ से आयेंगे ? यदि पहले ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना मानने से उसमें अन्यायी, अबुद्धिमान, अशक्तिमान, पक्षपाती, इच्छा, राग-द्वष आदि विकारों से लिप्त आदि अनेक दोषों का प्रसंग होता है / 21 इसीलिए भगवद् गीता में कहा गया है "न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः / र कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते // " ईश्वर न तो लोक का सृजन करता है, न ही कर्मों का और न लोकगत जीवों के शुभाशुभ कर्मफल का संयोग करता है / लोक तो स्वभावतः स्वयं प्रवर्तित है-चल रहा है / 22 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 43-44 के आधार पर (ख) स्याद्वाद मंजरी--"कर्ताऽस्ति कश्चिज्जगत: 'कारिका की व्याख्या 22 भगवद्गीता अ० 5, श्लोक 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org