________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय माकण्ड ऋषि की एक कहानी मिलती है, जिसमें विष्णु द्वारा सृष्टि की रचना की जाने का रोचक वर्णन प्राकृत भाषा में निबद्ध है। अण्डे से उत्पन्न जगत्- "कुछ (त्रिदण्डी आदि) श्रमणों-ब्राह्मणों ने या कुछ पौराणिकों ने अण्डे से जगत् की उत्पत्ति मानी है।" ब्रह्माण्ड पुराण में बताया गया है कि पहले समुद्र रूप था, केवल जलाकार ! उसमें से एक विशाल अण्डा प्रकट हुआ, जो चिरकाल तक लहरों से इधर-उधर बहता रहा। फिर वह फूटा तो उसके दो टुकड़े हो गये / एक टुकड़े से पृथ्वी और दूसरे से आकाश बना। फिर उससे देव, दानव, मानव, पशु-पक्षी आदि के रूप में सम्पूर्ण जगत् पैदा हुआ। फिर नल, तेज, वायु, समुद्र, नदी, पहाड़ आदि उत्पन्न हुए। इस प्रकार यह सारा ब्रह्माण्ड (लोक) अण्डे से बना हुआ है। मनुस्मृति में भी इसी से मिलती-जुलती कल्पना है--"वह अण्डा स्वर्णमय और सूर्य के समान अत्यन्त प्रभावान हो गया। उसमें से सर्वलोक पितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए।" उस अण्डे में वे भगवान् परिवत्सर (काफी वर्षों) तक रहे, फिर स्वयं आत्मा का ध्यान करके उस अण्डे के दो टुकड़े कर डाले / उन दोनों टुकड़ों से आकाश और भूमि का निर्माण किया। लोक-कर्तृत्व के सम्बन्ध में ये सब मिथ्या एवं असंगत कल्पनाएँ-गाथा 67 के उत्तरार्द्ध में 68 वीं सम्पूर्ण गाथा में पूर्वोक्त जगत् कर्तृत्ववादियों को परामर्श से अनभिज्ञ, मृषावादी, अपने-अपने कुतवाद को अपनी अपनी युक्तियों या स्वशास्त्रोक्तियों को सच्ची बताने वाले कथञ्चित् नित्य--अविनाशी लोक को एकान्त अनित्य-विनाशी बताने वाले कहा है। मूल गाथाओं में केवल इतना-सा संकेत अवश्य किया है कि वे अविनाशी लोक को कृत- अर्थात् विनाशी कहते हैं। वे लोक के यथार्थ स्वभाव (वस्तुतत्त्व) को नहीं जानते। वृत्तिकार ने इसी पंक्ति को व्याख्या करते हुए कहा है-वास्तव में यह लोक कभी सर्वथा नष्ट नहीं होता, क्योंकि द्रव्य रूप से यह सदैव स्थित रहता है। यह लोक अतीत में भी था, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगा। अत: यह लोक पहले-पहल किसी देव, ब्रह्मा, ईश्वर, प्रकृति, विष्णु, शिव आदि के द्वारा बनाया हुआ नहीं है। यदि कृत (बनाया हुआ) होता तो सदैव सर्वथा नाशवान् होता; परन्तु लोक एकान्ततः ऐसा नहीं है। अतः लोक देव आदि के द्वारा भी बनाया हुआ 20 (क) तदण्डमभवद्ध में सहस्रांशुसमप्रभम् / तस्मिन् जज्ञ स्वयं ब्रह्मासर्वलोक पितामहः // 6 // तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् / स्वयमेवात्मनो ध्यानात्तदण्डमकरोद् द्विधा // 12 // ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं भूमि च निर्ममे / मध्येब्योम दिशश्चाष्टावपां स्थानं च शाश्वतम् // 13 // उद्बबहन्मिनश्चव......."पंचेन्द्रियाणि च / / 14-15 // -मनुस्मृति अ० 1 (ख) कृतवाद-सम्बन्धित विचार के लिए देखिये सूत्रकृतांग सूत्र 656-662 में / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org