________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 253 250. कभी (वे चालाक) स्त्रियाँ (उपभोग करने योग्य शयन, आसन आदि (सुन्दर पलंग, शय्या, कुर्सी या आराम कुर्सी आदि) का उपभोग करने के लिए साधु को (एकान्त में) आमंत्रित करती हैं। वह (परमार्थदर्शी विवेकी) साधु इन (सब बातों) को कामजाल में फंसाने के नाना प्रकार के बन्धन समझं। 251. साधु उन स्त्रियों पर आँख न गड़ाए (मिलाए) न उनके साथ कुकर्म करने का साहस भी स्वीकार करे; न ही उनके साथ-साथ (ग्राम-नगर आदि में) विहार करे। इस प्रकार (ऐसा करने पर) साधु की आत्मा सुरक्षित होती है। 252. विलासिनी स्त्रियाँ साधु को संकेत करके (अर्थात्--मैं अमुक समय आपके पास आऊँगी, इत्यादि प्रकार से) आमंत्रित करके तथा (अनेक प्रकार के वार्तालापों से) विश्वास दिला कर अपने साथ सम्भोग करने के लिए निमंत्रित-प्रार्थना करती हैं / अतः वह (विवेकी साधु) (स्त्री सम्बन्धी) इन सब शब्दों-बातों को नाना प्रकार के पाशबन्धन समझे / 253. चालाक नारियां साधु के मन को बाँधने वाले (मनोमोहक-चित्ताकर्षक) अनेक उपायों के द्वारा तथा करुणोत्पादक वाक्य और विनीत भाव से साधु के समीप आकर मधुर-मधुर सुन्दर बोलती हैं, और काम सम्बन्धी बातों से साधु को अपने साथ कुकर्म करने की आज्ञा (अनुमति) दे देती हैं। 254. जैसे वन में निर्भय और अकेले विचरण करने वाले सिंह को मांस का लोभ देकर सिंह पकड़ने वाले लोग पाश से बाँध लेते हैं, इसी तरह मन-वचन-काय से संवृत-गुप्त रहने वाले किसी-किसी शान्त साधु को स्त्रियाँ अपने मोहपाश में बाँध लेती हैं। 255. रथकार जैसे रथ को नेमि चक्र के बाहर लगने वाली पुट्ठी को क्रमशः नमा (झुका) लेता है, इसी तरह स्त्रियां साधु को अपने वश में करने के पश्चात् अपने अभीष्ट (मनचाहे) अर्थ में क्रमश: झुका लेती हैं / मृग की तरह पाश में बंधा हुआ साधु (पाश से छूटने के लिए ) कूद-फाँद करता हुआ भी उस (पाश) से छूट नहीं पाता। 256. जैसे विषमिश्रित खीर को खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है, वैसे ही स्त्री के वश में होने के पश्चात् वह साधु पश्चात्ताप करता है। अतः मुक्तिगमन-योग्य (द्रव्य) साधु को स्त्रियों के साथ संवास (एक स्थान में निवास) या सहवास-संसर्ग करना उचित-कल्पनीय नहीं है। 257. स्त्रियों को विष से लिप्त कांटे के समान समझ कर साधु स्त्रीसंसर्ग से दूर रहे। स्त्री के वश में रहने वाला जो साधक गृहस्थों के घरों में अकेला जाकर (अकेली स्त्री को) धर्मकथा (उपदेश) करता है, वह भी 'निर्ग्रन्थ' नहीं है। 258, जो पुरुष (साधक) इस (स्त्रीसंसर्गरूपी) झूठन या त्याज्य निन्द्यकर्म में अत्यन्त आसक्त है, वह अवश्य ही कुशीलों (पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि चारित्रभ्रष्टों) में से कोई एक है / इसलिए वह साधु चाहे उत्तम तपस्वी भी हो, तो भी स्त्रियों के साथ विहार न करे। 256. अतः अपनी पुत्रियों, पुत्रवधुओं, धाय-माताओं अथवा दासियों, या बड़ी उम्र की स्त्रियों अथवा कुआरी कन्याओं के साथ भी वह अनगार सम्पर्क-परिचय न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org