________________ 448 सूत्रकृतांग-पन्द्रहवां अध्ययन-जमतीत 624. जो जीव इस मनुष्यभव (या शरीर) से भ्रष्ट हो जाता है, उसे पुनः जन्मान्तर में सम्बोधि (सम्यग्दृष्टि) की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। जो साधक धर्मरूप पदार्थ की व्याख्या करते हैं, अथवा धर्मप्राप्ति के योग्य हैं, उनकी तथाभूत अर्चा (सम्यग्दर्शनादि प्राप्ति के योग्य शुभ लेश्या-अन्तःकरणपरिणति, अथवा सम्यग्दर्शन-प्राप्तियोग्य तेजस्वी मनुष्यदेह) (जिन्होंने पूर्वजन्म में धर्म-बीज नहीं बोया है, उन्हें) प्राप्त होनी अतिदुर्लभ है। विवेचन--मोकप्राप्ति किसको सुलभ, किसको दुर्लभ ?-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में से प्रारम्भ की दो गाथाओं में यह बताया गया है कि समस्त कर्मों का क्षय, सर्वदुःखों का अन्त मनुष्य ही कर सकते हैं, वे ही सिद्धगति प्राप्त करके कृतकृत्य होते हैं / अन्य देवादि गति वालों को मोक्ष-प्राप्ति सुलभ नहीं / क्योंकि उनमें सच्चारित्न परिणाम नहीं होता। तीसरी गाथा में यह बताया गया है कि मोक्षप्राप्ति के लिए अनिवायं सम्बोधि तथा सम्बोधि-प्राप्ति की अन्तर् में परिणति (लेश्या) का प्राप्त होना उन लोगों के लिए दुर्लभ है, जो मनुष्यजन्म पाकर उसे निरर्थक गंवा देते हैं, जो मानव-जीवन में धर्मबीज नहीं बो सके। निष्कर्ष यह है कि मोक्षप्राप्ति की समग्र सामग्री उन्हीं जीवों के लिए सुलभ है, जो मनुष्यजन्म पाकर सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होकर धर्माचरण करते हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-उत्तरीए-वृत्तिकार के अनुसार अर्थ किया जा चुका है। चूर्णिकार के अनुसार अर्थ है-उत्तरीक स्थानों में-अनुत्तरोपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं। 'धम्म? वियागरे' के बदले चूर्णिसम्मत पाठ है--'धम्मट्ठी विवितपरापरा'-अर्थ किया गया है-धर्मार्थीजन पर-यानी श्रेष्ठ जैसे कि मोक्ष या मोक्षसाधन; तथा अपर-यानी निकृष्ट, जैसे मिथ्यादर्शन, अविरति आदि, इन दोनों परअपर को ज्ञात (विदित) कर चुके हैं।" मोक्ष प्राप्त जुरुषोत्तम और उसका शाश्वत स्थान 625 जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुण्णमणेलिसं। अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कुतो // 19 // 626 कुतो कयाइ मेधावी, उप्पज्जति तहागता। तहागता य अपडिण्णा चक्खु लोगस्सऽणुत्तरा // 20 // 625. जो महापुरुष प्रतिपूर्ण, अनुपम, शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं, वे सर्वोत्तम (अनुपम) पुरुष के (समस्त द्वन्द्वों से उपरमरूप) स्थान को प्राप्त करते हैं, फिर उनके लिए जन्म लेने की तो बात ही कहाँ ? 6 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 258 / 256. 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 258 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 113-114 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org