SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 362 सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धम 446. मुसावायं बहिद्ध च, उम्गहं च अजाइयं / सत्थादाणाइं लोगसि, तं विज्जं परिजाणिया।॥ 10 // 444-445. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज आदि वनस्पति एवं अण्डज पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज तथा उद्भिज्ज आदि त्रसकाय, ये सब षट्कायिक जीव है। विद्वान साधक इन छह कायों से इन्हें (ज्ञपरिज्ञा से) जीव जानकर, (प्रत्याख्यान परिज्ञा से) मन, वचन और काया से न इनका आरम्भ (वध) करे और न ही इनका परिग्रह करे। 446. मषावाद, मैथुनसेवन, परिग्रह (अवग्रह या उद्ग्रह), अदत्तादान, ये सव लोक में शस्त्र के समान हैं और कर्मबन्ध के कारण हैं / अतः विद्वान् मुनि इन्हें जानकर त्याग दे। विवेचन-श्रमण धर्म के मूल गुण-गत मोष-वर्जन-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (444 से 446 तक) में साधु के अहिंसादि पंचमहाव्रतरूप मूलगुणों के दोषों-हिंसा, असत्य आदि के त्याग करने का उपदेश है। पड़ नीवनिकाय का वर्णन-दशकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि आगमों में विस्तृत रूप से किया गया है / पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक के भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त आदि कई भेद तथा प्रकार हैं / प्रस्तुत शास्त्र में भी पहले इसी से मिलता-जुलता पाठ आ चुका है। षट्कायिक जीवों का भेद-प्रभेद सहित निरूपण करने के पीछे शास्त्रकार का यही आशय है कि जीवों को भेद-प्रभेदसहित जाने बिना उनकी रक्षा नहीं की जा सकती। ___ कठिन शब्दों की व्याख्या-बहिद्ध-मैथुनसेवन. उग्गह-परिग्रह, अजाइया- अदत्तादान / अथवा 'बहिन" का अर्थ मैथुन और परिग्रह है तथा 'उग्गहं अजाइया' का अर्थ अदत्तादान है। 'पोयया'--पोतरूप से पैदा होने वाले जीव, जैसे-हाथी, शरभ आदि / 'उम्भिया' - उद्भिज्ज जीव, जैसे- मेंढक, टिड्डी, खंजरीट आदि / उतरगुण-गत-दोष त्याग का उपदेश--- 447. पलिउंचणं भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि य / धूणाऽऽदाणाई लोगसि, तं विज्ज परिजाणिया // 11 // 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 178-176 का सारांश 5 देखिये--(अ) दशवैकालिक सूत्र का 'छज्जीवणिया' नामक चतुर्थ अध्ययन (आ) उत्तराध्ययन सूत्र का 'जीवाजीवविभत्ति' नामक ३६वां अध्ययन (इ) आचारांग सूत्र प्र० श्रु० का 'शस्त्रपरिज्ञा' नामक प्रथम अध्ययन (ई) सूत्रकृतांग प्र. श्रु० का कुशील-परिभाषा नामक ७वें अध्ययन की प्रथम गाथा 6 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 176 Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy