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________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 710 ] [81 (11) कोई (पापकर्म में धृष्ट) व्यक्ति स्वकृत दुष्कर्मों के फल का जरा भी विचार नहीं करता / वह अकारण ही (श्रमणादि-द्वषी बन कर) श्रमणों या माहनों के छत्र, दण्ड, कमण्डलु, भण्डोपकरणों से लेकर चर्मछेदनक एवं चर्मकोश तक साधनों का स्वयं अपहरण कर लेता है, औरों से अपहरण करता है और जो अपहरण करता है, उसे अच्छा समझता है / इस प्रकार की महती पापवृत्ति के कारण वह जगत् में स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर देता है। (11) ऐसा कोई (पापसाहसी) व्यक्ति श्रमण और माहन को देख कर उनके साथ अनेक प्रकार के पापमय व्यवहार करता है और उस महान् पापकर्म के कारण उसकी प्रसिद्धि महापापी के रूप में हो जाती है। अथवा वह (मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति साधुदर्शन को अपशकुन मान कर साधु को अपने सामने से हटाने के लिए) चुटकी बजाता है अथवा (o प्रोदनमुण्ड ! व्यर्थकाय-क्लेशपरायण ! दुर्बुद्ध ! हट सामने से) इस प्रकार के कठोर वचन बोलता है / भिक्षाकाल में भी अगर साधु उसके यहाँ दूसरे भिक्षुओं के पीछे भिक्षा के लिए प्रवेश करता है, तो भी वह साधु को स्वयं आहारादि नहीं देता दूसरा, कोई देता हो तो (विद्वेषवश) उसे यह कह कर भिक्षा देने से रोक देता है-ये पाखण्डी (घास और लकडी का) बोभा होते थे या नीच कर्म करते थे. कटान / के या बोझे के भार से (घबराए हुए) थे / ये बड़े आलसी हैं, ये शूद्र (वृषल) हैं, दरिद्र (कृपण, निकम्मे बेचारे एवं दीन) , (कुटुम्ब पालन में असमर्थ होने से सुखलिप्सा से) ये श्रमण एवं प्रवजित हो गए हैं। वे (साधुद्रोही) लोग इस (साधुद्रोहमय) जीवन को जो वस्तुत: धिम्जीवन है, (उत्तम बता कर) उलटे इसकी प्रशंसा करते हैं। वे साधुद्रोहजीवी मूढ़ परलोक के लिए भी कुछ भी साधन नहीं करते ; वे दुःख पाते हैं, वे शोक पाते हैं, वे पश्चात्ताप करते हैं, वे क्लेश पाते हैं, वे पीड़ावश छाती-माथा कूटते हैं, सन्ताप पाते हैं, वे दुःख, शोक पश्चात्ताप, क्लेश, पीड़ावश सिर पीटने आदि की क्रिया, संताप, वध, बन्धन प्रादि परिक्लेशों से कभी निवृत्त नहीं होते / वे महारम्भ और महासमारम्भ नाना प्रकार के पाप कर्मजनक कुकृत्य करके उत्तमोत्तम (उदार = प्रधान) मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते है। जैसे कि वह आहार के समय (सरस स्वादिष्ट) आहार का, पीने के समय (उत्तम) पेय पदार्थों का, वस्त्र परिधान के समय वस्त्रों का, आवास के समय (सुन्दर सुसज्जित) आवासस्थान (भवन) का, शयन के समय (उत्तम-कोमल) शयनीय पदार्थों का उपभोग करते हैं। वह प्रात और सायंकाल स्नान करते हैं फिर देव-पूजा के रूप में बलिकर्म करते चढ़ावा चढ़ाते हैं, देवता की प्रारती करके मंगल के लिए स्वर्ण, चन्दन, दही, अक्षत और दर्पण आदि मांगलिक पदार्थों का स्पर्श करते हैं, फिर प्रायश्चित्त के लिए शान्तिकर्म करते हैं। तत्पश्चात् सशीर्ष स्नान करके कण्ठ में माला धारण करते हैं। वह मणियों (रत्नों) और सोने (के प्राभूषणों) को अंगों में पह्नता है, (फिर) सिर पर पुष्पमाला से युक्त मुकुट धारण करता है। (युवावस्था के कारण) वह शरीर से सुडौल एवं हृष्टपुष्ट होता है। वह कमर में करधनी (कन्दोरा) तथा वक्षस्थल पर फूलों की माला (गजरा) पहनता है। बिलकुल नया और स्वच्छ वस्त्र पहनता है / अपने अंगों पर चन्दन का लेप करता है / इस प्रकार सुसज्जित होकर अत्यन्त ऊंचे विशाल प्रासाद (कुटागारशाला) में जाता है। वहाँ वह बहुत बड़े भव्य सिंहासन पर बैठता है। वहाँ (शृंगारित व वस्त्राभूषणों से सुसज्जित) युवतियां (दासी आदि अन्य परिवार सहित) उसे घेर लेती हैं। वहाँ सारी रातभर दीपक आदि का प्रकाश जगमगाता रहता है। फिर वहाँ बड़े जोर से नाच, गान, वाद्य, वीणा, तल, ताल, त्रुटित, मृदंग तथा करतल आदि की, ध्वनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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