________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन--समय इन गाथाओं में पूर्वोक्त अज्ञानियों की मनोदशा के फलस्वरूप तीन प्रक्रियाएँ बतायी हैं - (1) अशंकनीय पर शंका तथा शंकनीय पर अशंका, (2) कर्मबन्धन में बद्धता और (3) अन्त में विनाश। ____ अज्ञानवादियों के दो रूप-४१वीं गाथा से ५०वीं गाथा तक दो प्रकार के अज्ञानवादियों का निरूपण है-एक तो वे हैं, जो थोड़ा-सा मिथ्याज्ञान पाकर उसके गर्व से उन्मत्त बने हुए कहते हैं कि दुनिया भर का सारा ज्ञान हमारे पास है, परन्तु उनका ज्ञान केवल ऊपरी सतह का पल्लवग्राही होता है, वे अन्तर की गहराई में, आत्मानुभूति युक्त ज्ञान नहीं पा सके, केवल शास्त्र वाक्यों का तोतारटन है जिसे, वे भोले भाले लोगों के सामने बघारा करते हैं / जैसे देशी भाषा में बोलने वाले आर्य व्यक्ति के आशय को न समझ विदेशी-भाषा-पण्डित केवल उस भाषा का अनुवाद भर कर देता है, वैसे ही वे तथाकथित शास्त्रज्ञानी, वीतराग सर्वज्ञों की अनेकान्तमयी सापेक्षवाद युक्त वाणी का आशय न समझकर उसका अनुवाद भर कर देते हैं और उसे संशयवाद कहकर ठुकरा देते हैं। इसके लिए ४३वी गाथा में कहा गया है-"निच्छयत्यं ण जाणंति।" दूसरे वे अज्ञानवादी हैं-जो कहते हैं-अज्ञान ही श्रेयस्कर है। कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान न होने पर वाद-विवाद, संघर्ष, वाक्कलह, अहंकार, कषाय आदि से बचे रहेंगे। जान-बूझ कर अपराध करने से भयंकर दण्ड मिलता है, जबकि अज्ञानवश अपराध होने पर दण्ड बहुत ही अल्प मिलता है, कभी नहीं भी मिलता। मन में रागद्वषादि उत्पन्न न होने देने का सबसे आस ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति को छोड़कर अज्ञान में ही लीन रहना / इसलिए मुमुक्षु के लिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। फिर संसार में विभिन्न मत है, अनेक पंथ हैं, नाना शास्त्र हैं, बहुत-से धर्म-प्रवर्तक हैं, किसका ज्ञान सत्य है, किसका असत्य ? इसका निर्णय और विवेक करना बहुत ही कठिन है। किसी शास्त्र का उपदेश देते किसी सर्वज्ञ को आँखों से नहीं देखा, ये शास्त्रवचन सर्वज्ञ के हैं या नहीं ? शास्त्रोक्तवचन का यही अर्थ है या अन्य कोई ? इस प्रकार का निश्चय करना भी टेढ़ी खीर है / अतः इन सब झमेलों से दूर रहने के लिए अज्ञान का सहारा लेना ही हितावह है।" इन दोनों प्रकार के अज्ञानवादियों का मन्तव्य प्रकट करने के पश्चात् शास्त्रकार ने प्रथम प्रकार के ज्ञानगवस्फीत अज्ञानवादियों की मनोवृत्ति का उल्लेख करते हुए उनके अज्ञानवाद का दुष्परिणामअनन्त संसार परिभ्रमण (४७वीं गाथा से ५०वीं गाथा तक) में जो बताया है उसका निष्कर्ष यह है कि वे साधुवेष धारण करके मोक्षार्थी बनकर कहते हैं -हम ही धर्माराधक हैं / किन्तु धर्माराधना का क-खग वे नहीं जानते / वे षट्काय के उपमर्दनरूप आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होते हैं, दूसरों को भी आरम्भ का उपदेश देते हैं, उस हिंसादि पापारम्भ से रत्नत्रय रूप धर्माराधना तो दूर रही, उलटे वे धर्म भ्रमवश अधर्म कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं, वे संयम एवं सद्धर्म के मार्ग को ठुकरा देते हैं। न ही ऐसे सद्धर्म प्ररूपकों की सेवा में बैठकर इनसे धर्म तत्त्व समझते हैं। धर्माधर्म के तत्त्व से अनभिज्ञ वे लोग केवल कुतर्कों के 10 (क) वृत्तिकार ने अज्ञानवादियों में एकान्त नियतिवादियों, कूटस्थनित्य आत्मवादियों, एकान्त क्षणिकात्मवादियों (बौद्धों) आदि का उल्लेख किया है। -सूत्र कृ० शीलांक वृत्ति पत्र 32 11 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 32 से 34 तक के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org