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________________ 64 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध विवेचन–नौवाँ क्रियास्थानः मानप्रत्ययिक स्वरूप, कारण और परिणाम प्रस्तुत सूत्र में मानप्रत्ययिक क्रियास्थान के सन्दर्भ में शास्त्रकार तीन तथ्यों को सूचित करते हैं--- (1) मान की उत्पत्ति के स्रोत-आठमद (2) मानक्रिया का प्रत्यक्ष रूप-दूसरों की अवज्ञा, निन्दा, घृणा, पराभव, अपमान आदि तथा दूसरे को जाति आदि से होन और स्वयं को उत्कृष्ट समझना। (3) जाति आदि वश मानक्रिया का दुष्परिणाम- दुष्कर्मवश चिरकाल तक जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण, प्रकृति अतिरौद्र, अतिमानी, चंचल और नम्रतारहित / ' दसवाँ क्रियास्थान-मित्रदोषप्रत्ययिक : स्वरूप कारण और दुष्परिणाम ___ ७०४---प्रहावरे दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति पाहिज्जति, से जहाणामए केइ पुरिसे मातीहि वा पितीहि वा माईहिं वा भगिणीहि वा भज्जाहि वा पुहि वा धूयाहि वा सुण्हाहि वा सद्धि संवसमाणे तेसि अन्नतरंसि प्रहालहुगंसि प्रवराहसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति, तंजहा-सीतोदगवियसि वा कार्य प्रोबोलित्ता भवति, उसिणोदगवियडेण वा कार्य प्रोसिचित्ता भवति, अगणिकाएण वा कायं उड्ड हित्ता भवति, जोत्तेण वा वेत्तेण वा पत्तेण वा तया वा कसेण वा छिवाए वा लयाए वा पासाई उद्दालेत्ता भवति, दंडेण वा प्रढोण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा कायं पाउट्टित्ता भवति; तहप्पकारे पुरिसजाते संवसमाणे दुग्मणा भवंति, पवसमाणे सुमणा भवंति, तहप्पकारे पुरिसजाते दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरक्खडे अहिए इमंसि लोगसि अहिते परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्ठिमंसि यावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जति, दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति प्राहिते। 704- इसके बाद दसवाँ क्रियास्थान मित्र दोषप्रत्ययिक कहलाता है / जैसे—कोई (प्रभुत्व सम्पन्न) पुरुष माता, पिता, भाइयों, बहनों, पत्नी, कन्याओं, पुत्रों अथवा पुत्रवधुओं के साथ निवास करता हुया, इनसे कोई छोटा-सा भी अपराध हो जाने पर स्वयं भारी दण्ड देता है, उदाहरणार्थसर्दी के दिनों में अत्यन्त ठंडे पानी में उन्हें डबोता है। गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर अत्यन्त गर्म (उबलता हुआ) पानी छींटता है, आग से उनके शरीर को जला देता है या गर्म दाग देता है, तथा जोत्र से, बेंत से, छड़ी से, चमड़े से, लता से या चाबुक से अथवा किसी प्रकार की रस्सी से प्रहार करके उसके बगल (पार्श्वभाग) की चमड़ी उधेड़ देता है, तथैव डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले से ठीकरे या खप्पर से मार-मार कर उसके शरीर को ढीला (जर्जर) कर देता है। ऐसे (अतिक्रोधी) पुरुष के घर पर रहने से उसके सहवासी परिवारिकजन दुःखी रहते हैं, ऐसे पुरुष के परदेश प्रवास करने से वे सुखी रहते हैं / इस प्रकार का व्यक्ति जो (हरदम) डंडा बगल में दबाये रखता है, जरा से अपराध पर भारी दण्ड देता है, हर बात में दण्ड को आगे रखता है अथवा दण्ड को आगे रख कर बात करता है, वह इस लोक में तो अपना अहित करता ही है परलोक में भी अपना अहित करता है। वह प्रतिक्षण ईर्ष्या से जलता रहता है, बात-बात में क्रोध करता है, दूसरों की पीठ पीछे निन्दा करता है, या चुगली खाता है। 1. सूत्रकृतांग शीलाकवृत्ति, पत्रांक 311 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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