________________ पंचमं अज्झयणं-'णिरयविभत्ती' पढमो उद्देसओ नरक जिज्ञासा और संक्षिप्त समाधान 300. पुच्छिस्स हं केवलियं महेसि, कहऽभितावा गरगा पुरस्था। अजाणतो मे मुणि बूहि जाणं, कहं णु बाला जरगं उर्वति // 1 // 301. एवं मए पुढे महाणुभागे, इणमब्बवी कासवे आसुपण्णे / पवेदइस्सं दुहमठ्ठदुग्गं, आदोणिय दुक्कडियं पुरत्था // 2 // 302. जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाई कम्माई करेंति रुद्दा / ते घोररुवे तिमिसंधयारे, तिव्वाभितावे नरए पडंति // 3 // 303. तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिसतो आयसह पडुच्चा। जे लूसए होति अदत्तहारी, ण सिक्खती सेवियस्स किचि / / 4 / / 304. पागभि पाणे बहुणं तिवाती, अणिम्वुडे घातमुवेति बाले। णिहो णिसं गच्छति अंतकाले, अहो सिरं कटु उवेति दुग्गं / / 5 // 300. (श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं-) मैंने पहले केवलज्ञानी महर्षि महावीर स्वामी से पूछा था कि नरक किस प्रकार को पीड़ा (अभिताप) से युक्त हैं ? हे मुने ! आप इसे जानते हैं, (अतः) मुझ अज्ञात (न जानने वाले) को कहिये, (कि) मूढ़ अज्ञानी जीव किस कारण से नरक पाते हैं ? __301. इस प्रकार मेरे (श्री सुधर्मा स्वामी के) द्वारा पूछे जाने पर महानुभाव (महाप्रभावक) काश्यपगोत्रीय आशुप्रज्ञ (समस्त वस्तुओं में सदा शोघ्र उपयोग रखने वाले) भगवान महावीर ने कहा कि यह (नरक) दुःखहेतुक या दुःखरूप (दुःखदायक) एवं दुर्ग (विषम, गहन अथवा असर्वज्ञों द्वारा दुर्विज्ञेय) है। वह अत्यन्त दीन जीवों का निवासस्थान है, वह दुष्कृतिक (दुष्कर्म-पाप करने वालों या पाप का फल भोगने वालों से भरा) है। यह आगे चलकर मैं बताऊँगा। 302. इस लोक में जो कई रौद्र, प्राणियों में हिंसादि घोर कर्म से भय उत्पन्न करने वाले जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org