________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय 146. इस लोक में जो मनुष्य सुखानुगामी (सुख के पीछे दौड़ते) हैं, वे (ऋद्धि-रस-साता-गौरव में अत्यासक्त हैं, और काम-भोग में मूच्छित हैं, वे दयनीय (इन्द्रियविषयों से पराजित) के समान काम-सेवन में धृष्ट बने रहते हैं। वे कहने पर भी समाधि को नहीं समझते। 147. जैसे गाड़ीवान के द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ बैल कमजोर हो जाता है. (अत: वह विषम-कठिन मार्ग में चल नहीं सकता, अथवा उसे पार नहीं कर सकता / ) आखिरकार वह अल्पसामर्थ्य वाला (दुर्बल बैल) भार वहन नहीं कर सकता, (अपितु कीचड़ आदि में फँसकर) क्लेश पाता है। 148. इसी तरह काम के अन्वेषण में निपुण पुरुष; आज या कल में कामभोगों का संसर्ग (एषणा) छोड़ देगा, (ऐसा सिर्फ विचार किया करता है, छोड़ नहीं सकता / ) अतः कामी पुरुष काम-भोग की कामना ही न करे, तथा कहीं से प्राप्त हुए कामभोग को अप्राप्त के समान (जाने, यही अभीष्ट है।) 146. पीछे (मरण के पश्चात्) दुर्गति (धुरी दशा) न हो, इसलिए अपनी आत्मा को (पहले से ही) (विषय-संग से हटा लो, उसे शिक्षा दो कि असाधु (असंयमी) पुरुष अत्यधिक शोक करता है, वह चिल्लाता है, और बहुत विलाप करता है। 150. इस लोक में अपने जीवन को ही देख लो; सौ वर्ष की आयु वाले मनुष्य का जीवन तरुणावस्था (युवावस्था) में ही नष्ट हो जाता है। अतः इस जीवन को थोड़े दिन के निवास के समान समझो। (ऐसी स्थिति में) क्षुद्र या अविवेकी मनुष्य ही काम-भोगों में मूच्छित होते हैं। विवेचन-कामासक्ति-त्याग की प्रेरणा प्रस्तुत सात सूत्रगाथाओं (144 से 150 तक) में विविध पहलुओं से कामभोगों की आसक्ति के त्याग की प्रेरणा दी गई है। वे प्रेरणासूत्र ये हैं-(१) कामवासना को व्याधि समझ कर जो कामवासना की जड़-कामिनियों से असे वित-असंसक्त हैं, वे ही पुरुष मुक्ततुल्य हैं; (2) जैसे व्यापारियों द्वारा दूरदेश से लाई हुई उत्तमसामग्री को राजा आदि ही ग्रहण करते हैं, वैसे ही कामभोगों से ऊपर उठे हुए महापराक्रमो साधु ही रात्रिभोजन-विरमण व्रतसहित पंचमहावतों को धारण करते हैं / (3) विषयसुखों के पीछे दौड़ने वाले त्रिगौरव में आसक्त कामभोगों में मूच्छितजन, इन्द्रियों के गुलाम के समान ढीठ होकर कामसेवन करते हैं, वे लोग समाधि का मूल्य नहीं समझते। (4) जैसे माड़ीवान के द्वारा चाबुक मार-मारकर प्रेरित किया हुआ दुर्बल बैल चल नहीं सकता, भार भी नहीं ढो सकता और अन्त में कहीं कीचड़ आदि में फंसकर क्लेश पाता है, वैसे ही कामभोगों से पराजित मनोदुर्बल मानव भी कामैषणा को छोड़ नहीं सकता, काम-भोगों के कीचड़ में फंसकर दुःख पाता है। (5) कामभोगों को छोड़ने के दो ठोस उपाय हैं- (1) कामभोगों की कामना ही न करे, (2) प्राप्त कामभोगों को भी अप्राप्तवत् समझे / (6) मरणोपरान्त दुर्गति न हो, पोछे असंयमी (कामी-भोगी) की तरह शोक, रुदन और विलाप न करना पड़े, इसलिए पहले से ही अपनी आत्मा को विषय सेवन से अलग रखो, उसे ठीक अनुशासित करो; और (7) जीवन अल्पकालीन है यह देखकर अविवेकी मनुष्यों की तरह काम-भोगों में मूच्छित नहीं होना चाहिए। 4 सूत्रकृतांग सूत्र मूलपाठ, शीलांकवृत्ति भाषानुवाद सहित भाग 1, पृ० 273 से 280 तक का सार / Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org