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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 72 से 75 क्रिया दोनों से अथवा समस्त कर्म क्षय से मोक्ष या सिद्धि न मानकर स्वकल्पित एकान्त ज्ञान से, क्रिया से, सिद्धि मानते हैं, या योगविद्या से अणिमादि अष्ट सिद्धि प्राप्ति या रससिद्धि (पारद या स्वर्ण की रसायन सिद्धि) को अथवा स्वकोयमतानुवर्ती होने या जितेन्द्रिय होने मात्र से यहाँ सर्वकामसिद्धि मानते हैं। ऐसे लौकिक सिद्धों (अष्टसिद्धि प्राप्त या स्वकीय मत के तत्त्वज्ञान में निपुण) की पहचान नीरोग होने मात्र से हो जाती है, ऐसा वे कहते हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-सिद्धिमेव....."गढिया नरा ? अर्थात्-वे सिद्धिवादी अपनी पूर्वोक्त युक्ति विरुद्ध स्वकल्पित सिद्धि को ही सामने (केन्द्र में) रखकर चलते हैं, उसी की प्रशंसा करते हैं, उसी से ही इहलौकिक-पारलौकिक सिद्धि को सिद्ध करने के लिए युक्तियों की खींचतान करते हैं, इस प्रकार वे अपने-अपने आशय (मत या कल्पना) में आसक्त है। आशय यह है कि वे इतने मिथ्याग्रही हैं कि दूसरे किसी वीतराग सर्व हितैषी महापुरुष की युक्तियुक्त बात को नहीं मानते। अन्यमतवादियों के मताग्रह से मोक्ष वा संसार ?-75 वी गाथा में पूर्वोक्त अन्य मतवादियों द्वारा स्व-स्वमतानुसार कल्पित लौकिक सिद्धि से मोक्ष का खण्डन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं असंवुडा...... ..."आसुर किनिसिया।" इसका आशय यह है, जो दार्शनिक सिर्फ ज्ञान से, या सिर्फ कियाकाण्ड से, अथवा अष्ट-भौतिक ऐश्वर्य प्राप्ति अथवा अन्य लौकिक एवं यौगिक उपलब्धियों से सिद्धि (मुक्ति) मानते हैं, उनके मतानुसार हिंसा आदि पांच आस्रवों से, अथवा मिथ्यात्वादि पाँच कर्मबन्ध के कारणों से अथवा इन्द्रिय और मन में असंयम से अपने आपको रोकने (संवृत्त होने) की आवश्यकता नहीं मानी जाती, कहीं किसी मत में कुछ तपस्या या शारीरिक कष्ट सहन या इन्द्रिय-दमन का विधान है, तो वह भी किसी न किसी स्वर्गादि कामना या इहलौकिक (आरोग्य, दीर्घायु या अन्य किसी लाभ को) कामना से प्रेरित होकर अज्ञानपूर्वक किया जाता है, इसलिए वे सच्चे माने में संवृत नहीं है। इस कारण वास्तविक सिद्धि (मुक्ति) से वे कोसों दूर रहते, बल्कि अज्ञानवश अपने आपको ज्ञानी, मुक्तिदाता, तपस्वी और क्रियाकाण्डी मानकर भोले लोगों को मिथ्यात्वजाल में फंसाने के कारण तीन दुष्फल बताये हैं 34 (क) सिद्धि (मुक्ति या मोक्ष) के सम्बन्ध में विभिन्न वाद (i) 'दीक्षात: एव मोस:- शैव (ii) 'पंचविंशति तत्त्वज्ञो""मुच्यते नात्र संशयः।"--सांख्य (iii) नवानामात्मगुणानामुच्छेदो मोक्षः।-बैशेषिक (प्रशस्तपाद भाष्य) (iv) ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः-वेदान्त (v) योगाभ्यास से अष्टसिद्धियां प्राप्त होती हैं--योगदर्शन "अणिमा महिमा चैव गरिमा लधिमा तथा। प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्टसिद्धयः / " --अमरकोश कहीं-कहीं गरिमा और प्राप्ति के बदले अप्रतिघातित्व और यत्रकामावसायित्व नाम की सिद्धियां हैं। (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पु० 240 से 243 तक तथा सूत्राशी वृत्ति पत्र 46 के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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