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________________ 124 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन ---वैतालीय अभ्यास परिपक्व हो जाने पर साधु-जीवन में अकस्मात् कोई भी उपसर्ग या परीषह आ पड़े तो उस समय अहिंसा धर्म के गुणों-क्षमा, दया, धैर्य आदि को धारण करना चाहिए। उस समय न तो उस परीषह या उपसर्ग के निमित्त को कोसना चाहिए और न ही झुंझलाना या झल्लाना चाहिए। विलाप, आर्तध्यान, रोष, या द्वष करना भावहिंसा है, और यह प्रकारान्तर से आत्महिंसा (आत्म गुणों का घात) है। __ जैन दर्शन का माना हुआ सिद्धान्त है कि मनुष्य पर कोई भी विपत्ती, संकट, यातना या कष्ट अथवा दुःख पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय के कारण आते हैं, परन्तु अज्ञानी व्यक्ति असातावेदनीय कर्मों को भोगने के साथ आकुल-व्याकुल एवं शोकात होकर नया कर्मबन्ध कर लेता है, इसलिए शास्त्रकार ने 101 सूत्र गाथा में बताया है कि ज्ञानी साधक उपसर्ग या परीषहजन्य कष्ट आने पर पूर्वकृत कर्मफल जानकर उन्हें समभाव से भोगकर उस कर्मरज को इस तरह झाड़ दे, जिस तरह धूल से सना हुआ पक्षी अपने पंख फड़फड़ा कर उस धूल को झाड़ देता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-लुप्पए शीतोष्णादिदुःख विशेषों,(परीषहों) से पीड़ित होता है / लुप्पंती= अतिदुःसह, दुःखों से परितप्त-पीड़ित होते हैं। सहितेऽधिपासते वृत्तिकार के अनुसार-'सहितोज्ञानादिभिः, स्वहितो वा आत्महितः सन् पश्येत्=ज्ञानादि से युक्त-सम्पन्न, अथवा स्वहित यानी आत्म-हितैषी होकर कुशाग्र बुद्धि से देखे-पर्यालोचन करे / चूर्णिकार के अनुसार- "सहिते......"अधिकं पृथग् जनान् पश्यतिअधिपश्यति"- अर्थात् ज्ञानादि सहित साधक पृथक-पृथक अपने से अधिक लोगों को देखता है। अणिहे से पुट्ठोऽधियासए=निह कहते हैं-पीड़ित को। जो क्रोधादि द्वारा पीड़ित न हो, वह अनिह कहलाता है / ऐसा महासत्व परीषहों से स्पृष्ट-आक्रान्त होने पर समभाव से सहन करे, अथवा अनिह अर्थात् अनिगृहित नहीं छिपाने वाला / अर्थात् तप-संयम में तथा परीषह सहन में अपने बल-वीर्य को न छिपाए। कुलियं व लेववं लेप वाली (लीपी हुई) भींत या दीवार को। कसए पतली, कृश कर दे। अविहिंसा पम्वए -विविध प्रकार की हिंसा विहिंसा है। विहिंसा न करना अविहिंसा है, उस अविहिंसा धर्म पर प्रबल रूप में चलना या डटे रहना चाहिए। अणुधम्मो वृत्तिकार के अनुसार 'अनुगतो मोक्षम्प्रति अनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः अहिंसालक्षणः परीण्होपसर्ग सहनलक्षणश्च धर्मः' अर्थात् मोक्ष के अनुकूल अहिंसा रूप और परीषहोपसर्ग सहनरूप धर्म अनुधर्म है / अनुधर्म शब्द आचारांग सूत्र में तथा बौद्ध ग्रन्थों में भी प्रयुक्त है, वहाँ इसका अर्थ किया गया है-पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित धर्म के अनुरूप, अथवा पूर्व तीर्थकर चरित धर्म का अनुसरण अथवा धर्म के अनुरूप-धर्म सम्मत / 1 पंसुगुडिया धूल से सनी हुई। धंसयती= झाड़ देती है। सियं रयं लगी हुई रज को। दविओ-द्रव्य अर्थात् भव्य-मुक्ति गमन योग्य व्यक्ति / उवहाणवं=जो मोक्ष के उप=समीप, स्थापित कर देता है, वह उपधान (अनशनादि तप) कहलाता है, उपधान रूप तप के आराधक को उपधानवान कहते हैं। 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 57-58 (ख) सूयगडंग चूणि, (मू० पा० टिप्पण) पृ० 18 (ग) देखो आचारांग में-'एतं ख अणुधम्मियं तस्स' का विवेचन-आचारांग विवेचन 1/1/42 10 307 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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