________________ 348 सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-बोर्य प्राणिविघातक मंत्र-जो अथर्ववेदीय मंत्र अश्वमेध, नरमेध, सर्वमेध आदि जीववधप्रेरक यज्ञों के निमित्त पढ़े जाते हैं, अथवा जो प्राणियों के मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के लिए पढ़े जाते हैं, वे सब मंत्र प्राणिविघातक हैं। पाठान्तर एवं व्याख्यान्तर- 'काममोगे समारभे' के बदले पाठान्तर है-आरंभाय तिउट्टइ---अर्थात्बहुत-से भोगार्थी जीव तीनों (मन, वचन और काया) से आरम्भ में या आरम्भाथं प्रवृत्त होते हैं। 'संपरायं णियच्छति' वृत्तिकारसम्मत इस पाठ और व्याख्या के बदले चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर और व्याख्यान्तरसंपरागं णिय (गच्छति- सम्पराग यानी संसार को प्राप्त करते हैं। 'अत्तदुक्कडकारिणो'-वृत्तिकारसम्मत इस पाठ और व्याख्या के बदले चाणकारसम्मत पाठान्तर एवं व्याख्यान्तर--'अत्ता दुक्कडकारिणो'= आत्तं अर्थात् विषय-कषाय से आत्तं (पीड़ित) होकर दुष्कृत (पाप) कर्म करने वाले / ' पण्डित (अकमी) वीर्य-साधना के प्रेरणासूत्र 420. दविए बधणुम्मुक्के, सव्वतो छिण्णबंधणे / पणोल्ल पावगं कम्म, सल्लं कंतति अंतसो // 10 // 421. णेयाउयं सुयक्खातं, उवादाय समोहते। भुज्जो भुज्जो दुहावासं, असुभत्तं तहा तहा // 11 // 422. ठाणो विविहठाणाणि, चइस्संति न संसओ। अणितिए अयं वासे, णायएहि य सुहीहि य // 12 / / 423. एवमायाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे। आरियं उवसंपज्जे सव्वधम्ममकोवियं / / 13 / / 424. सहसम्मुइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा। समुट्ठिते अणगारे, पच्चक्खायपावए // 14 // 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति में उद्धृत अन्य ग्रन्थों के प्रमाण - (क) मुष्टिनाऽऽच्छादेयल्लक्ष्यं मुष्टो दृष्टि निवेशयेत् / हतं लक्ष्य विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते / / (ख) षट्शतानि नियुन्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्यवचनान्नयूनानि पशुभिस्त्रिभिः // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 166 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) 175 -सूत्र शी० वृत्ति पनांक 168 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org