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________________ [पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन पुण्डरीक नामक श्वेतकमल से उपमा देकर वर्णन किया गया है, अथवा आदि में पौण्डरीक नाम ग्रहण किया गया है, इस कारण इस अध्ययन का 'पौण्डरीक' नाम रखा गया है।' - एक विशाल पुष्करिणी में मध्य में एक पुण्डरीक कमल खिला है, उसे प्राप्त करने के लिए पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा से क्रमशः चार व्यक्ति आए। चारों ही पुष्करिणी के गाढ़ कीचड़ में फंस गए, पुण्डरीक को पाने में असफल रहे / अन्त में एक नि:स्पृह संयमी श्रमण अाया। उसने पुष्करिणी के तट पर ही खड़े रह कर पुण्डरीक को पुकारा और वह उसके हाथ में आ गया। प्रस्तुत रूपक का सार यह है--संसार पुष्करिणी के समान है, उसमें कर्मरूपी पानी और विषयभोगरूपी कीचड़ भरा है। अनेक जनपद चारों ओर खिले कमलों के सदृश हैं। मध्य में विकसित श्वेत पुण्डरीक कमल राजा के सदृश है। पुष्करिणी में प्रवेश करने वाले चारों पुरुष क्रमशः तज्जीव-तच्छरीरवादी, पंचभूतवादी, ईश्वरकारणवादी और नियतिवादी हैं / ये चारों ही विषयभोगरूप पंक में निमग्न हो कर पुण्डरोक को पाने में असफल रहे / अन्त में जिनप्रणीतधर्मकुशल श्रमण पाया / तट धर्मतीर्थ रूप है। श्रमण द्वारा कथित शब्द धर्मकथा सदृश हैं और पुण्डरीक कमल का उठना निर्वाण के समान है। जो अनासक्त, निःस्पृह और सत्यअहिंसादि महाव्रतों के निष्ठापूर्वक पालक हैं, वे ही निर्वाण को प्राप्त कर सकते हैं, जो विपरीत सावध आचार-विचारवाले हैं, वे निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकते। यही प्रथम अध्ययन के उपमायुक्त वर्णन का सार है। प्रस्तुत अध्ययन में पुष्करिणी में पुण्डरीक कमल-प्राप्ति की उपमा देकर यह भी संकेत किया गया है कि जो लोग प्रव्रज्याधारी हो कर भी विषयपंक में निमग्न हैं, वे स्वयं संसारसागर को पार नहीं कर सकते, तब दूसरों को कैसे पार पहुंचा सकेंगे ? 0 गद्यमय इस अध्ययन का मूल उद्देश्य विषयभोग से या विपरीत आचार-विचार से निवृत्त करके मुमुक्षु जीवों को मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करना है। - इस अध्ययन के कुछ शब्द और वाक्य आचारांग के शब्दों एवं वाक्यों से मिलते-जुलते हैं / 0 यह महाऽध्ययन सूत्र 638 से प्रारम्भ होकर सूत्र 663 पर समाप्त होता है / 1. (क) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक 271 (ख) सूयगडंग चूणि (मू. पा. टिप्पण) पृ. 121 2. (क) जैनागमसाहित्य : मनन और मीमांसा पृ. 86, 87 (ख) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भा. 1, पृ. 157-158 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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