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________________ सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति उनका अण्डकोष काटा जाता हैं, तथा शाल्मलिवृक्ष (अत्यन्त कठोर स्पर्श वाला) का आलिंगन कराया जाता है, जो लोग महापरिग्रही थे या तीव्र कषाय वाले थे, उन्हें अपने दुष्कर्मों का स्मरण कराकर वैसा ही दुःख दिया जाता है। इट्टहि कंतेहि य विप्पहूणा-इस पंक्ति के दो अर्थ वृत्तिकार करते हैं- (1) इष्ट एवं कमनीय शब्दादि विषयों से रहित (वंचित) होकर वे नरक में रहते हैं, अथवा (2) जिनके लिए उन्होंने पापकर्म किये थे, उन इष्ट माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि से तथा कान्त (कमनीय) विषयों से रहित होकर वे एकाकी नरक में आयुपर्यन्त रहते हैं।" पाठान्तर और व्याख्या-भवाहमे पुब्बसते सहस्से वृत्तिकार के अनुसार- बहुत-से भवो में जो अधम -मच्छीमार कसाई पारधि आदि नीच भव हैं, उन्हें पूर्वजन्मों में सैकड़ों हजारों वार पाकर विषय सम्मुख एवं सुकृत विमुख होकर या भागकर / चूणिकार सम्मत पाठान्तर है-'भवाहमे पुथ्या सतसहस्से' सैकड़ोंहजारों पूर्व तक यानी तैतीस सागरोपम तक भवों में अधम-निकृष्ट भव पाकर या भोगकर / प्रथम उद्देशक समाप्त बोओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक तीव्र वेदनाएँ और नारकों के मन पर प्रतिक्रिया 327. अहावरं सासयदुक्खधम्म, तं भे पवक्खामि जहातहेणं / बाला जहा दुक्कडकम्मकारी, वेदेति कम्माइं पुरेकडाई // 1 // 328. हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकत्तंति खुरासिाह / गेण्हेत्तु बालस्स विहन्न देहं, वद्ध थिरं पिटुतो उद्धरंति // 2 // 326. बाहू पकत्तंति य मूलतो से, थूलं वियासं मुहे आडहंति / रहंसि जुत्तं सरयंति बालं, आरुस्स विझति तुदेण पट्टे // 3 // 330. अयं व तत्तं जलितं सजोति, ततोवमं भूमिमणोक्कमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, उसुचोदिता सत्तजुगेसु जुत्ता // 4 // 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 134 8 सूयगडंग सुत्त (मू० पा० टिप्पण) पृ० 58 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 134 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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