________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 106 से 110 126 उनकी बात सुनेगा, किन्तु वाग्जाल में न फंसेगा। काम रूप, काम भोगों-इन्द्रियविषयों से ललचाएँ, प्रलोभन दें; भोगों का निमन्त्रण दें। ज्जाहि णं बंधिउ घर= यदि बाँधकर घर ले जायें। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर -. अणेज्ज णंबंधित्ता घरं. या वाँधकर घर ले आएँ। "जीवियं गावकखए" इसके दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं—(१) यदि जीवित रहने (जीने) की आकांक्षा-आसक्ति नहीं है, अथवा (2) यदि असयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता या उसे पसन्द नहीं करता / ममाइणो यह साधु मेरा है, इस प्रकार ममत्व रखने वाले / सेहति - शिक्षा देते हैं / अन्ने = कई अल्प पराक्रमी कायर / अन्नेहि-माता-पिता आदि द्वारा। विसमं असंयम / साधक के लिए संयम सम हैं, असंयम विषम है। विसमेहि असंयमी पुरुषों-उन्मार्ग में प्रवृत्त होने और अपाय-विपत्ति से न डरने के कारण राग-द्वेष युक्त विषम पथ को ग्रहण करने वालों द्वारा / अथवा विषमों-यानी राग-द्वषों के द्वारा / 24 कर्मविदारक वीरों को उपदेश 106 तम्हा दवि इक्ख पंडिए, पावाओ बिरतेऽभिनिव्वुडे / पणया वोरा महाविहि, सिद्धिपहं गेयाउयं धुवं // 21 // 110 वेतालियमम्गमागओ, मण वयसा काएण संवडो। चेच्चा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरेज्जासि // 22 / / त्ति बेमि। 106. [माता-पिता आदि के मोह बन्धन में पड़कर कायर पुरुष संयम भ्रष्ट हो जाते हैं] इसलिए द्रव्यभूत भव्य (मुक्तिगमन योग्य अथवा राग-द्वेष रहित) होकर अन्तनिरीक्षण करे / पण्डित-सद्-असद् विवेकयुक्त पुरुष पापकर्म से सदा विरत होकर अभिनिवृत्त (शान्त) हो जाता है / वीर (कर्म-विदारण में समर्थ पुरुष) उस महावीथी (महामार्ग) के प्रति प्रणत-समर्पित होते हैं, जो कि सिद्धि पथ (मोक्षमार्ग) है, न्याय युक्त अथवा मोक्ष की ओर ले जाने वाला और ध्रुव (निश्चित या निश्चल) है। 110. (अब तुम) वैदारिक (कर्मों को विदारण-विनष्ट करने में समर्थ) मार्ग पर आ गए हों ! अतः मन, वचन और काया से संवृत (गुप्त-संयत) होकर, धन-सम्पत्ति तथा ज्ञाति जनों (कुटुम्बियों) एवं आरम्भ (सावध कार्य) को छोड़कर श्रेष्ठ इन्द्रिय संयमी (सुसंवृत) होकर विचरण करो। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-कर्म-विदारण-वीर साधकों को उपदेश-प्रस्तुत सूत्र गाथा द्वय (106-110) में संयम भ्रष्ट साधकों की अवदशा बताकर सुविहित साधकों को महापथ पर चलने का उपदेश दिया है। उक्त महापथ पर चलने की विधि के लिए सात निर्देश सूत्र हैं-(१) भव्य-मोक्षगमन के योग्य हो, (2) स्वयं अन्तनिरीक्षण करो, (3) सद्-असद् विवेक युक्त पण्डित हो, (4) पाप-कर्म से विरत हो, (5) कषायों से निवृत्त 24 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 58-56 (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 18-16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org