________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 753] [145 ७५३--(प्रेरक ने पुनः अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की-) मनुष्य क्या करता हुआ, क्या कराता हुआ तथा कैसे संयत, विरत, तथा पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान करने वाला होता है ? ___ आचार्य ने (समाधान करते हुए) कहा- इस विषय में तीर्थंकर भगवान ने षड् जीवनिकायों को (संयम अनुष्ठान का) कारण बताया है / वे छह प्राणिसमूह इस प्रकार हैं-पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीव / जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा डंडे से, हड्डियों से, मुक्कों से ढेले से या ठोकरे से मैं ताडन किया जाऊं या पीड़ित (परेशान) किया जाऊं, यहाँ तक कि मेरा केवल एक रोम उखाड़ा जाए तो मैं हिंसाजनित दुःख, भय और असाता का अनुभव करता हूँ, इसी तरह जानना चाहिए कि समस्त प्राणी यावत् सभी सत्त्व डंडे आदि से लेकर ठीकरे तक से मारे जाने पर एवं पीड़ित किये जाने पर, यहाँ तक कि एक रोम भी उखाड़े जाने पर हिंसाजनित दुःख और भय का अनुभव करते हैं। ऐसा जानकर समस्त प्राणियों यावत् सभी सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, यहाँ तक कि उन्हें पीड़ित (उपद्रवित) नहीं करना चाहिए। यह (अहिंसा) धर्म ही ध्रव है, नित्य है, शाश्वत है, तथा लोक के स्वभाव को सम्यक् जानकर खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ तीर्थंकरदेवों द्वारा प्रतिपादित है / यह जान कर साधु प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों से विरत होता है / वह साधु दाँत साफ करने वाले काष्ठ आदि से दांत साफ न करे; तथा नेत्रों में अंजन (काजल) न लगाए, न दवा लेकर वमन करे, और न ही धूप के द्वारा अपने वस्त्रों या केशों को सुवासित करे। वह साधु सावधक्रियारहित, हिंसारहित, क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित, उपशान्त एवं पाप से निवृत्त होकर रहे। ऐसे त्यागी प्रत्याख्यानी साधु को तीर्थकर भगवान् ने संयत, विरत, (हिंसादि पापों से निवृत्त पापकर्मों का प्रतिघातक, एवं प्रत्याख्यानकर्ता, अक्रिय (सावद्य क्रिया से रहित), संवत (संवरयुक्त) और एकान्त (सर्वथा) पण्डित (होता है, यह) कहा है। (सुधर्मास्वामी बोले- ) (जो भगवान् ने कहा है) 'वही मैं कहता हूं।' विवेचन –संयत, विरत एवं पापकर्मप्रत्याख्यानी कौन और कैसे ? प्रस्तुत सूत्र में प्रेरक के द्वारा सुप्रत्याख्यानी के सम्बन्ध में उठाए गए प्रश्न का प्राचार्यश्री द्वारा दिया गया समुचित समाधान अंकित है। प्रश्न--कौन व्यक्ति, किस उपाय से, क्या करके संयत, विरत, तथा पापकर्मनाशक एवं प्रत्याख्यानी होता है ? समाधान के पांच मुद्दे--(१) समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य जानकर उनकी किसी भो प्रकार से हिंसा न करे, न कराए, और न ही उसका अनुमोदन करे (2) प्राणातिपात से मिथ्यादर्शन शल्य तक के अठारह पापों से विरत हो, (3) दन्तमंजन, अंजन, वमन, धूपन आदि अनाचारों का सेवन न करे / (4) वह साधक सावधक्रियारहित, अहिंसक, क्रोधादिरहित, उपशांत और पापपरिनिवृत्त होकर रहे / (5) ऐसा साधु ही संयत, विरत, पापकर्मनाशक, पाप का प्रत्याख्यानी, सावद्यक्रियारहित, संवरयुक्त एवं एकान्त पण्डित होता है, ऐसा तीर्थंकर भगवान् ने कहा है।' ॥प्रत्याख्यान क्रिया : चतुर्थ अध्ययन समाप्त / 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 370 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org